मूरस हिन्दू कम न लहैं दुग जिनकर यह ढग दीठा।
"घर की साड खुरखुरी लागै चोरो का गुड मीठा ॥१॥
नहि सीखत सद्गुण करि नेम ।
निज हउ तजिन प्रचारत प्रेम ।।
परदेशिन सेवत अनुरागे।
"सय फल पाय धतूरन लागे ॥२।।
तृप्यन्ताम् ।
केहि विधि वेदिक धर्म होत कब ।
काहा बखानत ऋक, यजु, साम ।।
हम सपनेह में नहिं जाने।
रहे पेट के बने गुलाम।।
तुमहि लजापत जगत जनम लै।
दुदु लोकन में निपट निफाम ||
कहें कौन मुपलाय हाय फिर ।
ब्रह्मा यावा तृप्यन्ताम् ॥१॥
देख तुम्हारे फ़रजन्दों का।
सौरो-तरीक तुश्रामो फलाम ॥
खिदमत कैसे फर, तुम्हारी ।
अक्कल नहीं कुछ करती काम ||
श्राचे गड नजर गुजरानू।
या कि मये गुरुगू का जाम ॥
मशी चितरगुपत साहब ।
तसलीम कहू या तिरपिताम ॥२॥
इन नमूनों से प्रतापनार्गयण का म्वदेश और स्व-भाषा सम्बन्धी प्रेम टपका पडता हे। स्वदेश दशा का चित्र भी इनमें अच्छा देखापड़ता है।