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भी ऐसा ही करते थे। कई दफे उन्होंने नाटक भी खेला था। उसमें उन्हाने अपनी हास्यमयी कविता से दर्शकों को सब ही हसाया था। फागुन में इकतारा लेकर वे उपदेशपूर्ण, पर हास्यजनक, होली, कयीर और पद आदि गाते थे। वे बहुत जल्द कविता करते थे। यथासमय कविता बनाकर लोगों को वे मोहित कर देते थे। एक दफा एक साधु ने यह पद गाया- "तजहु मन हरि-विमुसन को सग । जिनको सगति सदा पाय के परत भजन में भग" । प्रतापनारायण ने इस पूरे पद के मतलब को बिलकुल ही उलट कर  इस तरह गाया- "तजहु मन हरिभक्तन को सग । जिनकी सगति सदा पाय के होत रग में भग"। इसी तरह सारे पद केनर्थ को उन्होंने बदल दिया। ये पूरे मसरारे थे।

यदि पण्डित प्रतापनारायण मिथ की जीवनी में यह न लिया जाय कि वे बडे ही दिल्लगीवाज और किसी अश में फक्कड थे, तो वह जीवनी अवश्य ही अपूर्ण समझी जायगी। एक वार नाटक में उनको स्त्री का रूप लेना था। इसलिए मूछों का मुउचाना जरूरी था । आप बडे भक्ति-भाव से अपने पिता के सामने हाजिर हुए और चोले, "यदि आज्ञा  दीजिये तो इनको मुंउवा टालू । इनका मुंडन्गना जरूरी है। परन्तु मैं चनाशाकारी नहीं बनना चाहता" । पिता ने हंसकर आशा दे दी।

पण्डित प्रतापनारायण नाटक खेलने के विशेष प्रेमी और जब जय वे नाटक सेले नय तब उनके चातुर्य की प्रशला हुई । एक बार उन्होंने "उर्दू चोरी" का पार्ट लिया था। उस समय उनके और मुसल्मान वेश्या के वेश में कोई अन्वर न था । दर्शकों में बैठी हुई एक प्रसिद्ध वेश्या से " बुआ सलाम"