एक शिलालिसित सर्टीफिकेट हो गई। उसका उल्लेख कर के इन्होंने कई दफे अपने ही मुह अपनी नारीफ की । हरि श्चन्द्र के मरने पर इन्होंने "शाकाश्रु" नामक एक विलापा त्मक लम्बी कविता "ब्राह्मण" में प्रकाशित की । उस इन्हों ने बाबू साहब के गुण गाते गाते आकाश पाताल एफ कर दिया। हरिश्चन्द्र को इन्होंने "पूज्यपाद" तक कहा है। अपने कई ग्रन्थों के आदि में "हरिश्चन्द्राय नमः" लिया है। उनके मरने पर इन्होंने "हरिश्चन्द्र सम्बत्" लिखना तक शुरू कर दिया था।
इनका शरीर क्या था रोग का चिर-वास्तव्य था। कई दफे ये सख्त घीमार हुए, पर बच गये । सम्बत् १९५१ की' आपाढ शुक्ल चतुर्थी, रविवार, (भागस्ट १६४) इनकी जीधन यात्रा का अन्तिम दिन था । उसी दिन, ३८ वर्ष की उमर में, रात के दस बजे के करीब, इनका शरीरपात हुआ । इनके भरने पर सभी हिन्दी अखयागें ने शोक सूचक लेख लिखे। फविताएँ भी बहुत सी प्रकाशित हुई। इनके कोई सन्तति नहीं । इनकी विधवा अभीतक विद्यमान है । इनके पूर्वजों के उपार्जित दो तीनम कान कानपुर में हैं। शायद उन्हीं के किराये पर इनका गुजर हाता है । मरने के पहले कुछ काल के लिए प्रतापनारायण चांकीपुर चले गये थे । बाबू रामदीनसिंह की इनपर कृपा थी। इसी लिए ये वहा गये थे । जैसा ऊपर लिया गया है, इनकी प्राय, सभी कितायें रानविलास प्रेस के मालिक ही छापते और वेचते हैं । मालूम नहीं उन्होंने पण्डित भतापनारायण की विधवा की कुछ मदद की या नहीं।