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कांग्रेस को ये अच्छा समझते थे। उसके ये पक्षपाती थे। एक दफा मदरास और एक दफा इलाहाबाद की काग्रेस में कानपुर से प्रतिनिधि होकर आप गये भो ये । गोरक्षा के ये बहुत बडे हिमायती ये। अपनी कई कविताओं में इन्होंने गोरक्षा पर जोर दिया है। सुनते हैं कानपुर में जो इस समय गोशाला हे, उसकी स्थापना के लिए प्रयत करनेवालों में ये भी थे। एक दफा स्वामी भास्करानन्द के साथ ये कनोज गये। यहा गोरक्षा पर इन्होंने एक व्याख्यान दिया । व्याख्यान में इन्होंने एक लायनी कही । उसका प्रारम्भ इस प्रकार है--

यां या करि तृण दावि दॉन सो दुखित पुकारत गाई है।

इसमें करुणरस का इतना अतिरेक था कि मुसलमानों तक पर इसका असर हुआ और एक आध कसाइयों ने गो. हत्या से तोया तक किया।

हरिश्चन्द्र पर भक्ति।

हरिश्चन्द्र पर प्रतापनागयण की अपूर्व भक्ति थी । उनका "कविनचनसुधा" पढ़ते ही पढ़ते हिन्दी पर ये अनुरागशील हुए थे। हरिश्चन्द्र की इन्होंने यहुत तारीफ की है। "ब्राह्मण" में कई जगह मिश्र महाराज ने हरिश्चन्द्र को ऐसे ऐसे चिशे- पण दिये हैं जो सिर्फ बहुत यडे यडे महात्माओं ही को दिये जाते है। इन्होंने उनके हाथ तक जोडे है। यह वात, उस समय, किमी किसी को अच्छी नहीं लगी । इसने इन पर आक्षेप भी हुए । आक्षेपों का इन्होंने यथामति उत्तर भी दिया। हरिश्चन्द्र ने जब से प्रतापनारायण की "प्रेमपुष्पावली" की तारीफ की, तर से इनका उत्साह बहुत बढ़ गया। हरिश्चन्द्र की आलोचना गोया इनके सुलेसक और सुकवि होने की