प्रतापनारायण को सामाजिक बन्धनों की परवा बहुत कम थी। इस विषय में विधि-निषेध-सम्बन्धी जो नियम प्रचलित है उनसी पावन्दी के वे कायल न थे। उनका आहार- विहार अनियत्रित था। शरीर रक्षा के नियमों का वे अच्छी तरह पालन न करते थे। इसीसे उनका शरीर जवानी ही में मिट्टी हो गया था । और इसीसे उनकी अकाल मत्यु भी हुई। कवि ही तो ठहरे। कवि स्वभाव ही से उच्छवल होते है ।
सामाजिक बन्धनों की तरह धार्मिक धन्धनों के भी वे पहुत अधिक वशीभूत न थे। धर्मान्धता उनमें न थी। आपके सिद्धान्त थे "प्रेम एव परोधर्म." और "शत्रोरपिगुणाघाच्या दोपा वाच्या गुरोरपि" । किसी विरोधी धर्म,से उन्हें प्रान्त- रिक घृणा न थी।वेक आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज, धर्मसमाज, सय कहीं अकसर चले जाते थे। शायद कुछ दिन तक किसी पादरी को पढ़ाने की नौकरी भी आपने कर ली थी। उन्होंने एक सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी के घर में जन्म लिया था और ऐसे ही धर्मावलम्बी लोगों के साथ वे वैठते उठते भी थे। इसलिए इस धर्म की तरफ उनकी प्रवृत्ति स्वभाव ही से अधिक थी। यह इनके लेपों से जाहिर है। अकेला इनका "शैवसर्घस्व" ही इस बात का पक्का सबूत है । एक दफा कल- कते की हाईकोर्ट में किसी जज ने शालग्राम की मूर्ति मंगवाई थी। इस पर प्रतापनारायण बिगड उठे थे। आपने कई लेख इस बात के खिलाफ लिखे थे। A