पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१७७

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पहिले घर ही भली भाति सीपिये, फिर किसी मागरी नागर की सेवा फ्रीजिये, सय देखा जायगा। अभी तो जान पडता है कि माप इस देश ही में नए आये हैं । अथवा दिल्ली में रहे, परमार झोंकते रहे । नहीं तो जिस 'घालण' को यहा मूर्ख से मूर्ख भौर विद्वान् से विद्वान् सात-गुरु देवता और महा. पाज इत्यादि कहता और पूजता है उसे आपने फेवल रसोई पद समझा है। फिर उसके गुण और उसका पचन-लालित्य क्या थूल समझेंगे, और पिना समझे किसी बात में कान. पूंज दिलाना निरा भख मारना है। ऐसी समन पर तप्रज्ञ फामाइगा तो अपने मन में ही मम में चाहे जो फूल उठिये, पर बुद्धिमाम लोग जान जायगे कि कौन कितना है, यस मुर्तजा का शब्द नागरी में लिसाजा सकता है, परन्तु गणित, बाह्मण और मत्रादि शन्द लिखने में उरदू वाले ऐसे अक्षम है जैसे सन्तानोत्पत्ति में और आत्म विद्या में यवन । इस विषय को हम यथोचित रीति से सिद्ध कर चुके हैं, पर 'पवनय यदा करीर विटपे दोपो वसन्तस्य किं ? मिया न समझे तो हम कहां तक 'अन्धे के आगे रोमैं अपने दीदे सोघेहयाई हो तो इतनी हो कि उत्तरदाता की बात न समझने पर भी अपनी ही जीत मान लें। ऊपर से दूसरी बुद्धिमत्ता यह दिखाई है कि 'नागरी में सनअत तजनी नहीं होती', अर्थात् नतीजा में नैचा, चूना में जूता, मालूबुखारा में उल्लू विचारा, इत्यादि का धोखा नहीं होता । हजरत ! यह उरदू का दोष हे, आपही इसे सनत समझिये। किष्किा की चंदरियों ने श्रीसीताजी के सौन्दर्य में इतना दोप निकाला था । कि उनके दुम नहीं हे! यही लेखा एडिटर करता है।

हम लोग इसीलिए सरकार से प्रार्थी हैं कि यह फरेषी