तेन्दु क्या दस पांच कोठियों के स्वामी न बन सकते थे, सर्कार के यहां से 'सी० एस० आई० अथवा अनार्यरी मजिस्ट्रेट न हो सकते १ पर उन्हें तो यह धुन थी कि पार्यवश हमारे होते दूधने न पाये । इसी लिए अपना बहुत सा धन, यात सा समय, बहुत सा सुख त्याग दिया, बलुतेरों की गालिया सही, और हमारी ही चिन्ता की चिन्ता पर सो गए मा म्याय यह नहीं कहता कि यह लोग हिन्दुओं के लिए शिर मुडा के घर फूक तमाशा देख केोधलि हो गए ।
बहुतेरों का स्वभाव होता है कि कैसी ही बात कहो, फाई पत्र जरूर निकालते हैं। ऐसे जन कहते हैं कि सक स्वामी जी एवं वाबू जी अपना नाम चाहते थे। इसका सहज सा उत्तर पों है कि नाम तो विषयासकि और अपव्यय से भी लोग पा सकते हैं, देश की फिकर क्यों करते । यदि माम ही लो कि नाम ही चाहते थे तो विचारों ने खोया अपना सर्वस्व, सो भी परार्य, और चाहा फेवल नाम । श्रापको इसमें भी ईपी है तो नाम भीन लीजिए गालिया दिया कीजिए। पर विचारशीलता यदि कोई वस्तु है तो वह अत करण से यही कहेगी कि-
पर हित लापि तजै जो देही,
सन्तत मन्त प्रशसहि तेही।
यदि कृतज्ञता कोई पदार्थ है तो वह अवश्य कहेगी कि ऐमों का गुण माना, ऐसों की प्रतिष्ठा तन मन-धन से फरना धर्म है, और अपने तथा देश के लिए श्रेयम्फर है। भारत सन्तान-मात्र इनके ऋणी है इसके नाम पर अपना जो कुछ यार दे, वह थोडा है। कृतघ्नता के पाप से तभी हम मुक होंगे, अब इनकी महिमा दृढ रसने का प्रयत फरें। गदी शाय