पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१६२

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से मुह मोड पादरियों के पक्षलगुआ वन पैठे। पर अच्छी बाते जिसके यहां से मिले, लेना श्रेयस्कार हैं। क्या हमारे धर्म में उपकारी की कृतज्ञता वर्जित है ? जबकि कुत्ता भी अपने टुकडा देने और चुमकारनेवाले के साथ प्रीति निभाता है तो मनुष्य या उससे भी गए बीते हैं कि अपने हितैपियों के अनुगृहीत न हों, जिनको हम विधर्मी और निद्य कहते हैं उनमें इतनी कृतज्ञता है तो क्या हमको कृतन होना चाहिये ? अन्य सम्प्रदायी जिन बातों को करते हो उनके ठीक विरुद्ध चलना हमारे यहां कहीं नहीं लिया।

फिर हम इतरों की भली बातों को क्यों छोड दें यदि विचार के देखिए तो मसीह कोई धनी और विद्वान् न थे कि कोई बड़ा उपकार कर सकते। उपद्देश भी फेवल अपने शिष्यों ही को देते थे। लिन विचारों ने ईसा के नाम पर अनेक दुख सहे उनका कमी ईसा ने नाम भी नहीं लिया।हमारे यहां तो पुरुपरस्तों ने अपना तन, मन, धन, विद्या, प्रतिष्ठा सब कुछ फेषल हमारी उन्नत्यर्थ लगा दिवा, और हमारे लिए हाव २ करते २ दुष्ट काल का कौर हो गए। पर हम उनको मानों मूख गए।

दयानन्द स्वामी घर को तहसीलदारी छोड के फकीर भए थे, विद्या भी साधारण न थी, आप भी दर्शनीय था, धु में भी चमत्कार था। क्या यह चाहते तो दस बीस रानाओं को भी न मूडते, दो चार गाव भी अपने मुट्ठी में म कर लेते, दो चार वारांगना भी नित्य सेवा में न रखते, अथवा विशुद्ध विराग धारण करके देवता न धन जाते ?

केशव थावू क्या कहीं के जन धावडे यारिस्टर यन के लाखों का द्रव्य और लाखों सुसन भोग डालते ? हमारे भार