ईश्वर की इच्छा, फाल की गति, वर्तमान गजा की नीति, चाहे जो कह लीबिए, पर इसमें भी कोई सन्देश नहीं है कि हमारे नाश का मुख्य कारण हमारी ही मूर्पता है। नहीं तो कुत्ते भी जहा पैठते हैं, पहा पूछ हिता के बैठते हैं । पर हमने अपनी चात उनसे भी चुरी कर रक्खी है कि जिस पृथ्वी पर रहते है उसी के पगने विगडने का ध्यान नहीं रखते। हमारे वे पूर्वक्ष मूर्ख न थे जिन्होंने धरती को माता पव शिवजी की पार मूर्तियों में से एक मूर्ति कहा है, तथा उसके पूजने की आशा दी है। वे भली भाति जानते थे कि ससार में जितने पदार्थ है सबकी उतान्ति मोर लय इसी में और इसी से होनी है।
हम सारे श्रम धर इसी-पर फरते हैं, हमारे सुख-भोग की सारी सामग्री हमें इसी से प्राप्त होती है। फिर इसके माता होने में क्या सन्देश है। यदि इस.माता के प्रसन्न रखने में उद्योग न करते रहेंगे तो हमारी क्या शा दोगी' पर इस समय के अनेक विदेशी विद्वानों को भी निश्चय हो गया है कि यदि कोई पुरुप नित्य शरीर पर लाफ चिकनी मिट्टी लपाया करे वा प्रतिदिन कुछ काल उसमें लोटा करे तो शरीर, मस्तिष्क पर हदय को बडा खाम पहुंचता है। हमारे यहा के अपठित सोग भी जानने किमट्टी देही को पालती है पर यदि म मट्टी को शुद्ध न रखें, उसके अशुभ करनेवालों को गरोफै, शुधमट्टी प्राप्त करने में आलस्य अथवा लोम पर मो. हमारा ही अपराध है कि नहीं? और उस अपराध मे, मही लगाने तथा उसके लाम उवाने से हम यचित रहेंगे कि मनी। पेसे दो मट्टी को तथा यावत् वस्तुओं की गानि भारी धरती माता- यदि निर्वीजा होती रहेगी, जैसी शाजात हमारी पेपरवाई से होती जाती है तो इसमें भो कोई माधयं