पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १३ )

यण ने मतलव से कुछ जियादह अपनी तारीफ कर डाली है। ऊपर के अवतरण के आगे भी आपने अपनी तारीफ को है और अपने को "पण्डित वर" लिखा है। "परम रसिक" "सहृदय" और "नवरस-मिद्धा इत्यादि विशेषण तो ठीक ही हैं। पर "सुघर रूप"में विलक्षणता हे।

आत्मश्लाघा को लोगों ने युग माना है। यद्यपि सस्कृत के किसी किसी कवि ने प्रात्मश्लाघा की है, पर कालिदास के सरश विश्वमान्य कवि ने नम्रता ही दिखलाई है। प्रताप- नारायण सस्कृत कवि श्रीहर्ष   और जगन्नाथराम के स्कूल के थे। उन्हें अपने को "प्रसिद्ध प्रतापनारायण लिये यिना कल ही न पडती थी। उनकी कितानी के ऊपर तक "प्रसिद्ध शब्द विराजमान है। "ब्राह्मण" में कई जगह इन्होंने अपने मुह अपनी और अपने पुस्तकों की बडाई की है। अपनी "प्रेमपुष्पावली" के ऊपर आपने एक लेप "ब्राह्मण" में अपनी ही कलम से लिख कर उसकी सूप तारीफ की है।

  • पर प्रतापनारायण की आत्मश्लाघा उर्दू के प्रसिद्ध कवि इन्शा

शला खां की आत्मश्लाघा के सामने कोई चीज़ नहीं। सैयद साहब ने एक मुशायरे में अपने एक प्रतिपक्षी के जवाब में एस गजल कही थी । उसकी कुछ पंक्तिया या है।

एक तिफूल रिस्ता हे फलातू मेरे आगे । क्या मुह है अरस्तू जो कर च मेरे आगे ॥ क्या माल मला कसूर फरेदू मेरे आगे। कापे है पड़ा गुम्यदे गर, मेरे आगे । बोले है यही प्रामा कि किस किस को मै बापू । बादल से चले भाते हैं मजमू मेरे धागे ।