पूजा में यगाली मामा पेट भर २ मास नाते और तोच फुलाते ! कार्तिक में यों तो सभी को सुख मिलता है, पर हमारे अटीवाजो को पौवारह रहती है। 'न हाकिम का मटका न रयत का गम सरे बाजार मतलर गांउना विशेषत दिवाली में तो देश का देश ही उनकी स्वार्थसाधिनी समा फा मेम्बर हो जाता है । पीछे से “आफयत की खबर खुदा जाने," श्राज तो राजा, वायू, नमाय, सर (अगरेजी प्रतिष्ठावाचक शब्द) हजरत, श्रीमान् सय श्रापही तो हैं।
मगहन और पूस हिन्दुओं के हक में मनहूस मदीने हैं । इनमें शायद कोई त्योहार होता हो। परवडा दिन बहुधा इन्हीं में होता है। इससे भेगा फरोशों तया हमारे गौराग देवताओं का मुह मीठा होता है।
माघ में स्नानादि श्रखरते हैं, इससे धर्मकार्य ही कम होते हैं, पय कहां से हो । पर हा, यसतपचमी के दिन धोविनों को महिमा बढ जाती है। घर २ श्री पार्वती देवी की स्थाना- धिफारिणी धनी पुजाती फिरती हैं। हम नहीं जानते कि यह चाल कय से चली है, और कौन उत्तमता सोच के चलाई गई है।
फागुन के तो क्या २ गुन गाइएगा, होली है। ऐसा कौन है जो खुशी के मारे पागल न हो जाता हो । जब जट वृक्ष माम भी पौराते हैं तब आम खास सभी के पोराने की या पान है । पर सय से अधिक मानों का महत्व बढ जाता है। पडे २ दरवारों में उसकी पूछ पैठार होती है, बडे बडे लोगों को उनकी पदवी मिलती है। 'भाधा आप होली के भटुभा' पस सिर से पाय तक तर हो गए।