पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१३८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १०६ )

"जियत हंसी जो जगत में, मरे मुक्ति केहि काज"

क्या फोई सफल सद्गुणालकृत व्यकि समस्त सुख सामग्री सयुक्त, सुवर्ण केमदिर में भी एकाकी रहके सुख से कुछ काल रह सकता है ? ऐसी २ वातों को देख सुन, सोच समझके भी जो लोग किसी डर या लालच या दवाव में फॅसके पच के विरुद्ध हो धैठते हैं, अथवा द्वेपियों का पक्ष समर्थन करने लगते हैं वे हम नही जानते कि परमेश्वर, (प्रकृति) दीन, ईमान, धर्म, कर्म, विद्या, बुद्धि, सहृदयता और मनुष्यत्व को क्या मुंह दिखाते होंगे? हमने माना कि थोडे से हठी, दुराग्रही लोगों के द्वारा उन्हें मन का धन, कोरा पद, ऋठी प्रशसा, मिलनी सम्भव है, पर इसके साथ अपनी अतरात्मा (फानशेन्स) के गले पर छूरी चलाने का पाप तथा पचों का श्राप भी ऐसा लग जाता है कि जीवन को नर्कमय कर देता है, और एक न एक दिन अवश्य भडा फूट के सारी शेखी मिटा देता है। यदि ईश्वर की किसी हिकमत से जीते जी ऐसा न भी हो तो मरने के पीछे आत्मा की दुर्गति, दुर्नाम, अपकीर्ति एव सनान के लिए लजा तो कहीं गई ही नहीं। क्योंकि पच का बैरी परमेश्वर का बैरी है, और परमेश्वर के वैरी के लिए कहीं शरण नहीं है-

राखि को सकै रामकर द्रोही ।

पाठक ! तुम्हें परमेश्वर की दया और बडों वूदों के उद्योगसे विद्या का अभाव नहीं है। मत. आंखें पसार के देखो कि तुम्हारे जीवनकाल में पढ़ी लिखी सृष्टिवाले पच किस ओर मुक रहे हैं, और अपने ग्रहण किये हुए मार्ग पर किस दृढता, वीरता और अकृत्रिमता से जा रहे हैं कि थोडे से विरोधियों की गाली धमकी तो क्या, यरच साठी तक खाके हतोत्साह नहीं होते, और खी पुत्र, धन जन क्या, घरच प्रात्म .