इस नाम का हमारे यहां सदा से बडा गौरव है। हमारे वेद शास्त्र पुराणों में सहलो वचन पतिव्रताओं की महिमा के हैं। हमारी परमपूज्या जगदम्या श्री पार्वतीजी, श्री सीता- जी, श्री अनुसूयाजी इत्यादि का वडा महत्व विशेषतः इसी कारण है कि वे पतिव्रता थी । निश्चय हे किसी के लिए पति बत से बढ़के कोई धर्म नहीं है, न पति से बढके कोई देवता है। अद्यापि साधारण स्त्रियां कहा करती हैं कि "हमार पति परमेश्वर आहीं। सच तो यों है कि जिस स्त्री ने मन-वचन- फर्म से सत्य और सरलता के साथ पति-प्रेम का निर्वाह किया वह महान् पूजनीया है । दक्ष प्रजापति की पुरी सतीदेवी का चरित्र परम प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपने प्यारे प्राणनाथ भग वान भोलानाथ का अपमान देवके पिता फा, देवताओं का, ऋपियो का, अपने प्राण का भी कुछ शोच-सकोचन किया। फिर क्यों न हम लोग सतो शब्द को पतिव्रता का पर्याय समझे?
भारत की पूर्णान्नति का एक घडा भारी फारण यह भी था कि स्त्रियां बहुधा पतिता होती थीं । ससार रूपी रथ के दोनों पहिए स्त्री और पुरुष हैं, और व्यभिचार को तो व्यमि- चारी लोग भी शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और सामाजिक अवनति का मूल मानते है । फिर, जिस देश में स्त्रिया विशेषत. पतिव्रता हो, और पुरुष एक स्त्रीवती हो उस देश को सन्नति में क्या वाधा हो सकती है। जिस गाड़ी के दोनों पहिए दूढ हो उसके चलने में भी कोई अडचन है। प्रेम में यह सामर्थ्य है कि प्रेमपात्र फैसा ही हो, परप्रेमिका की पदचित्तता से वह अवश्य