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देशी कपड़ा।

मानव जाति का, खाने के उपरात, कपडे के बिना भी निर्वाह होना कठिन है। विशेषतः सभ्यदेश के भोजना, च्छादन, रोटो कपडा, नानो नफफ इत्यादि शब्दों से ही सिब है कि इन दोनों बातों में यद्यपि पाने यिना जीवन रक्षा ही असम्भव है, पर कपड़े के बिना भी केवल प्रतिष्ठा ही नहीं, भरच भारोग्य, एवं असम्भव नहीं है कि प्राण पर भी याधा भावे पर खेद का विषय हे कि हम अपने मुख्य निर्वाह की वस्तु के लिए भी परदेशियों ही का मुह देखा फरें। हमारे देश की कारीगरी लुप्त हुई जाती है, हमारा धन समुद्र पार खिचा जाता है इत्यादि विषय बहुत सूक्ष्म है, उस पर जोर देने से लोग कहेगे कि एडीटरी की सनक है, कविता की अत्युक्ति है, "जिमि टिभि खग सुतै उताना" की नकल पर हमारे पाठक इतना देस ले कि जय हमको एक वस्तु इसम चिरस्थायिनी और अल्प मूल्य पर मिलती है तो बाहर से हम यह यस्तु पयों लें?

गृहस्थ का यह धर्म नहीं है कि जय एक रुपया से काम निकलता है तय व्यर्थ देढ उठाये । विलायती साधारण कपडा नैनसुख मलमल इत्यादि तीन आने से पाच आने नाज मिलता है, उसके दो अंगरखे सालभर मडी मुश्किल से रखते हैं, पर उसके मुकापिले देशी कपडा (मुरादाबादी वारसाना, फासगजी गाढा इत्यादि) तीन याने गज का। पहा यद्यपि, अरज़ कम होने के कारण, कुछ अधिक लगता है, पर उसके दो अंगरसे तीन घर्ष हिताये नहीं हिलते। बाबू मोग यह न समद कि अगरेज़ी फैशन का कपडा नहीं मिलता,