क्षमा से बढ़कर काई धर्म नहीं। क्षमा ही से यह जगत् ठहरा हुआ है। विवेको पुरुष का निरंतर क्षमा ही करना चाहिए। तमावान् का लाक और परलाक सब सुधरता है । यथा-
क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भतं च भावि च ।
क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ।।
क्षतव्यमेव सततं पुरुपेण विजानता ।
यदा हि क्षमते सर्व ब्रम संपद्यते तदा ॥
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् ।
इह सम्मानमर्हति परत्र च शुभा गतिम् ।।"
यह सिद्धांत है कि जो जितना दुर्बल होता है, वह उतना ही क्रोधी होता है और जो जितना बली होता है, वह उतना ही क्षमावान् है। गरुड़पुराण में क्षमाशील पुरुषों में एक दोष भी दिखाया है। वह यह कि-
“एकः क्षमावता दोषो द्वितीयो नापपद्यते ।
यत एनं क्षमतायुक्तमशक्त मन्यते जनः ।"
अर्थात् क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष पाया जाता है, दूसरा नहीं । इस क्षमायुक्त को लोग असमर्थ समझते हैं।
सच है, दुर्जन लोग क्षमावान् को अवश्य ही अशक्त मानते हैं। वे समझते हैं कि इसने हमारे दोष क्षमा नहीं किए, वरंच इसकी ऐसी सामर्थ्य ही नहीं थी कि हमें दंड देता। इसलिये वे उसे बार बार सताते हैं, खिझाते हैं और नाना प्रकार के