अयोध्या की पिछली दशा ऐसी खराब हुई कि उसके पुराने प्रताप में भी लोगों को संदेह हो गया; किंतु विचारशील पुरातत्त्व- वेत्ता किसी न किसी प्रकार यह कही बैठते हैं कि अपने समय में अयोध्या भी एक ही थी। इसकी तुलना योग्य दूसरी नगरी ही नहीं थी। अबुलफजल लिखता है कि "यह शहर अपने जमाने में १४८ कोस लंबा और ६६ कोस चौड़ा बसवा
था ।" विदेशियों के खुशामदो, स्वदेशियों के निंदक, मृत राजा शिवप्रसाद भी अबुलफजल क कथन को बढ़ावा मान प्रकारांतर से उसी का अनुमोदन करते हैं। वे कहते हैं कि “इसमें शक नहीं इमारतों के निशान दूर दूर मिलने से यह बात बखूबी साबित है कि वह परले दर्जे का शहर था" । राजा शिवप्रसाद की प्रकृति ही ऐसी थी कि जहाँ देशियों के प्रताप का वर्णन होता, उसे वे बढ़ावा समझते और देशियों की निंदा को यथार्थ।
यही हाल इनके शिक्षागुरु विलायतवालों का है। क्या यह संभव नहीं कि समृद्धिशालिनी अयोध्या रघुवंशी वा बौद्ध राजाओं के समय,काल पाकर,अधिक समृद्ध हो गई हो?
अयोध्या कितनी बार बसी और कितनी बार उजड़ी, इसका हिसाब करना सहज नहीं है । सच पूछिए तो भगवान श्री रामचंद्र के लीलासंवरण के बाद ही अयोध्या पर विपत्ति आई। कोशल राज्य के दो भाग हुए । श्री रामचंद्र के ज्येष्ठ कुमार महाराज कुश ने अपने नाम से नई राजधानी "कुशावती" बनाई और छोटे पुत्र लव ने "शरावती" वा "श्रावस्ती" की