पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/७

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अभिहित होते हैं। किसो स्थान का वर्णन करने में मन में भौति भांति के विचार तथा अनक प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं। वे इस वर्णन को शोभा और मनोहरता का उत्कर्ष बद्धन हारने के साधक हो जाते हैं । इन्हों भावों ओर विचारों के द्वारा निबंध-लेखक अपना व्यक्तित्व प्रकट करता और उन पर अपनी विशिष्ट छाप लगा देता है । यहो कारण है कि उसको शैली में भी एक अनिर्वचनीय विशिष्टता पा जाता है। कहीं वह समास-प्रणालो का उपयुक्त प्रयोग कर मन को मुग्ध करता और कहीं व्यास-प्रणालो का अनुसरण कर अपने विषय को उछलता कूदता हुआ बनाकर एक गंभोर तथा तीव्रगामिनी नदी के धारा-प्रवाह की भाँति सरकता चलता है । अतएव जहाँ मावों और विचारों को गंभारता के साथ भाषा-शैनी का मनोहर मिश्रण रहता है वहाँ निबंधों की विशिष्टता स्पष्ट हो जाती है और लेखक का व्यक्तित्व साक्षात् भाविभूत हो जाता है। इसी लिये किसो लेखक की भाषा-शैला का विवेचन करने के लिये प्रायः उसके लिखे निबधों को ही प्राधार बनाकर विवेचन किया जाता है। हिंदी में निबंधों का आरंभ तो भारतेंदु जी के समय में ही हो गया था और पंडित बालकृष्ण भट्ट तथा पंडित प्रतापनारायण मिश्र आदि ने अपने-अपने विशिष्टतायुक्त ढंग पर इस परंपरा को जीवित रखा ओर यह कुछ-कुछ चलती रही, पर हिंदी में निबंधों का वास्तविक अभ्युदय और विकास माधुनिक काल में