पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/६६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८
निबंध-रत्नावली


महर्षि वाल्मीकिजी की रामायण को देखने से यही सिद्ध होता है कि अयोध्या उस समय में मर्त्यलोक की अमरावती थी। अमरावती क्या, यदि अमरावता से बढ़कर कोई पुरी भूमंडल पर थी तो वह अयोध्या ही थी। यहाँ जो कुछ विभूति वा सुख- सामग्री था, उसका अनन्य प्रभाव था। जिस दैवी संपत्ति के कारण अयोध्या की शास्त्रों में भूयसो प्रशंसा की गई है उसका वर्णन करना हमारा उद्देश्य नहीं है । हम केवल अयोध्या की उस मानुषी संपत्ति को दिखाना चाहते हैं जिसे लिखे पढ़े लोग नवीन समझे हुए हैं!

यह भूमंडल की सबसे पहली लोकप्रसिद्ध राजधानी स्वयं आदिराज महाराज मनु जी ने बसाई थी। दैर्घ्य (लंबाई) में बारह योजन और विस्तार (चौड़ाई) में तीन योजन थी। सुतरां अयोध्या अड़तालीस कोस लंबी और बारह कोस चौड़ी थी। जैसा कि महर्षि वाल्मीकिजी ने रामायण के बालकांड में वर्णन किया है-

"अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।

मनुना मानवेंद्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ।।

अायता दश च द्वे च योजनानि महापुरी।

श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा नानासस्थानशोभिता।।

ऊपर जो अयोध्या की लंबाई-चौड़ाई का वर्णन है उसमें नगर मात्र को समझना चाहिए, राजमहल वा राजदुर्ग इससे भिन्न था । महर्षि ने दूसरी जगह लिखा है-