प्रभात के समय क्या कहकर तुम्हारा वंदन करें? शय्या त्याग कर नीचे पैर रखते हुए प्रणाम कर कहना चाहिए-
"समुद्रमेखले देवि! पर्वतस्तन-मण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥"
देवि! इस समय मैं पैर से तुम्हारा अंगस्पर्श करूँगा। तुम्हें स्पश न करें, ऐसा उपाय ही क्या है? समुद्रांत जितना विस्तृत स्थान है, सभी तो तुम्हारा अंग है। इस स्थान को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? इस समुद्रांत भूमि पर जितने प्राणी रहते हैं, सभी को तुम्हारे शरीर पर पैर रखना होगा। माँ! तुम इस अपराध को क्षमा करो। तुम जननी हो तुम क्षमा, न करोगी तो कौन करेगा? यह विशाल पवत-समूह तुम्हारा स्तनमण्डल है। इस पर्वतसमूह से जितनी स्रोतस्विनी नदियाँ निकल रही हैं वे तुम्हारे ही स्तन की दुग्धधारा हैं। इन्हीं से सब प्राणी प्राणवान् हैं। जननि, विष्णुपनि! सन्तान का यह अपराध क्षमा करो। हम भक्तिप्रवण चित्त से तुम्हें नम- स्कार करते हैं।
हाय माँ! आज वे सब रत्न जीवित नहीं हैं, इसी से तो तुम बदनाम हो रही हो। आज तुम्हारी संतान मिट्टी हो रही है, इसलिये तुम्हारा भी वह वसुंधरा नाम विलुप्तप्राय है। देवी! अब के मटियल कवियों को तो यही सूझता है कि-
समझ के अपने तन को मिट्टी, मिट्टी जो कि रमता है।
मिट्टी करके अपना सरबस, मिट्टी में मिल जाता है।