यह नाम व्यास, वाल्मीकि, पाणिनि, कात्यायन आदि सुसंतानों का दिया हुआ है। केवल यही नाम क्यों, वसुंधरा, वसुमती, वसुधा, विश्वंभरा प्रभृति कितने ही आदर के और भी अनेक नाम हैं। तुम्हें वे तुम्हारे सुपुत्र न जाने कितने आदर, कितनी श्लाघा और कितनी श्रद्धा से पुकारते थे। क्यों माता, तुम्हारे पास ऐसा धन क्या धरा है जिससे तुम वसुंधरा, वसुधा के नाम से विख्यात हो? कहा तो, ऐसा सर्वोत्तम रत्न क्या है जिससे तुम 'वसुमती' कहला रही हो? मा! कुछ तो है, जिससे इस दुर्दिन के घोर अंधकार में भी तुम्हारे मुख पर उजाला हो रहा है।
जिन सत्पुत्रों ने तुम्हारे ये नाम रखे हैं, वे ही तो श्रेष्ठ रत्न हैं। व्यास, वाल्मीकि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, कपिल, कणाद, जैमिनि, गौतम इनकी अपेक्षा और कौन रत्न हैं? मा! भीष्म, द्रोण, बलि, दधोचि, शिवि, हरिश्चंद्र इनके सदृश रत्न और कहाँ हैं? अनसूया अरुन्धती, सीता, सावित्री, सती, दमयन्ती इनके तुल्य रत्न और कहाँ मिल सकते हैं? हम लोग अकृतज्ञ हैं, सब भूल गए। अब हमें उनका स्मरण ही नहीं; मानों वे एक बार ही लोप हो गए हैं! यदि कहीं लीन हुए होंगे, तो वे तुम्हारे ही अंग में लीन हुए हैं। जननी ! जरा देख तो सही, तुम्हारे किस अंग में लीन हुए हैं। मा ! वह तेज, वह प्रतिभा, कहाँ समा सकती है? मा ! आकाश के चंद्र-सूर्य क्या मिट्टी में सो रहे हैं? मा ! एक बार तो अभागी संतान को उनके दर्शन कराओ!