यह सभा वही विख्यात सभा थी, जो बारह वर्षों से भारतवर्ष में सनातनधर्म और संस्कृत विद्या के प्रचार करने का बीड़ा उठाए फिरती है। इसलिए इस महासभा से पुराने वृद्ध पंडित और धर्मात्मा जन आशा करते थे कि यह देश के अनाचार दुराचार आदि की तो निवृत्ति करेगी और सदाचार की प्रवृत्ति। इससे धर्म की जय होगी और साथ ही धमप्रतारक लंपटों को भय होगा। बालक सुशिक्षित बनेंगे और स्त्रियाँ निंदित न होंगी। मूर्खों की धृष्टता बढ़ने न पावेगी और विद्वानों का तिरस्कार न होगा। पापियों की प्रतिष्ठा न होगी और धार्मिकों का उत्साह बढ़ेगा।
इस महासभा में अब की बार दरभंगा और अयोध्या के महाराज बहादुर का बहुमूल्य और अव्यर्थ शुभागमन सुनकर यह नतीजा मेरे सरल अंतःकरण ने पहले ही से निकाल दिया था कि इस बार केवल पुराने प्रस्ताओं का पिष्टपेषण वा मंतव्य पत्र का शुष्क पाठ मात्र ही न होगा, कोई सच्ची उदारता का मूर्तिमान् उदाहरण भी दृष्टिगोचर होगा। अतएव मैं मंतव्यपत्र को पाकर, उत्कंठित हो, मंतव्य के मर्म पर ध्यान दे रहा था अकस्मात् ऊपर लिखे हुए शब्द कान में पहुँचे, जिनसे एक बार ही मेरा ध्यान भंग हो गया।
आँख उठाकर देखा तो सामने छः वर्ष के बालक हरदयाल को पाया। हरदयाल मेरे बड़े भाई का बड़ा लड़का है। इस समय वह अपने छोटे भाई की शिकायत कर रहा है। यह