प्रस्तावना + हिंदी-साहित्य में निबंधों का आधुनिक रूप पश्चिम की देन है। प्राचीन संस्कृत-परंपरा के अनुमार निबध केवल बौद्धिक अभिव्यक्ति का साधन बनाया गया था। भारतवर्ष का सूक्ष्म शनिक विश्लेषण और क्रमबद्ध वैज्ञानिक अभिव्यक्ति प्रसिद्ध .। इसी दार्शनिक विश्लेषण और वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के लिय निबंध का प्रयोग किया गया है। अत: उसकी शैली पूर्ण रूप से वस्तु-प्रधान और कहीं कहीं जटिल तथा सूत्रबद्ध हो गई है। एक निश्चित विषय को लेकर उसके अंग-प्रत्यंग की मीमांसा ऐसे नि:शंक रूप में की गई है कि उसमें लेखक की व्यक्तिगत सत्ता को छाया छू भी न पाई। ऐसे निबंध स्वभावत: ही बुद्धि-विशिष्ट, रुक्ष और वैज्ञानिक कोटिक्रम से संयुक्त हुए। प्राचीन भारतीय निबंधों की यह प्रमुख विशेषता है कि वे लौह पाच्छद में जकड़े हुए परतंत्र रूप में प्रकट हुए, जिनमें निगमन, दृष्टांत आदि सब शृंखलाबद्ध पद्धतियों को अवतारणा हुई। इसलिए प्राचीन निबंधकार शुद्ध साहित्यिक कोटि में स्थान न पा सके। वे एक प्रकार की विश्लेषात्मक कोटि में रख दिए गए । साहित्य की रसात्मकता का उनमें बहुत कुछ अभाव रहा । न तो उनमें व्यक्तित्व की कोई चमत्कार-पूर्ण मुद्रा दिखाई दो ओर न भाव-प्रमान शैला का हो प्रवेश हो पाया।
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