पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/३००

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५८
निबंध-रत्नावली

मिलती गई । देशी और कुछ नहीं, बाँध से बचा हुआ पानी है, या वह जो नदीमागे पर चला आया, बाँधा न गया । उसे भी कभी कभी छानकर नहर में ले लिया जाता था । बांध का जल भी रिसता रिसता इघर मिलता पा रहा था। पानी बढ़ने से नदी की गति वेग से निम्नाभिमुखी हुई, उसका 'अपभ्रंश' (नीचे को बिखरना) होने लगा । अब सूत से नपे किनारे और नियत गहराई नहीं रही । राजशेखर ने संस्कृत वाणी को सुनने योग्य. प्राकृत का स्वभावमधुर, अपभ्रंश को सुभव्य और भूतभाषा को सरस कहा है । इन विशेषणों को साभिप्रायता विचारने योग्य है । वह यह भी कहता है कि कोई बात एक भाषा में कहने से अच्छी लगती है, कोई दूसरी में, कोई दो तीन में । उसने काव्य पुरुष का शरीर शब्द और अर्थ का बनाया है जिसमें संस्कृत को मुख, प्राकृत को बाहु, अपभ्रंश को जयन-स्थल, पैशाच को पैर और मिस्र को ऊरु कहा है। विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहवीं तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और फिर वह पुरानी हिंदी में परिणत हो गई। इसमें देशी की प्रधानता है। विभक्तियाँ घिस गई हैं, खिर गई हैं, एक ही विभक्ति हैं, या आहं कई कई काम देने लगी है। एक

कारक की विभक्ति से दूसरे का भी काम चलने लगा है।


* बालरामायण।

काव्यमीमांसा, पृ० ४८।