का व्याकरण बनाया, उसने प्राकृत को भाषा समझकर व्याकरण नहीं लिखा। ऐसी साधारण बातों को छोड़कर कि प्राकृत में द्विवचन और चतुर्थी विभक्ति नहीं है, सारे प्राकृत व्याकरण केवल सस्कृत शब्दों के उच्चारण में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, इनकी परिसंख्या-सूची मात्र हैं। दूसरी यह कि संस्कृत नाटकों की प्राकृत को शुद्ध प्राकृत का नमूना नहीं मानना चाहिए । वह पंडिताऊ या नकली या गढ़ी हुई प्राकृत है, जो सस्कृत में मसविदा बनाकर प्राकृत व्याकरण के नियमों से, त की जगह य और क्ष की जगह ख, रखकर, साँचे पर जमाकर गढ़ी गई है । वह संस्कृत मुद्दाविरे का नियमानुपार किया हुआ रूपांतर है, प्राकृत भाषा नहीं। हाँ, भास के नाटकों की प्राकृत शुद्ध मागधी है । पुराने काल की प्राकृत रचना, देशभेद के नियत हो जाने पर, या तो मागधी में हुई या महाराष्ट्रो प्राकृत में; शौर- सेनी पैशाची आदि केवल भाषा में विरल देश भेद मात्र रह गई, जैसा कि प्राकृत व्याकरणों में उन पर कितना ध्यान दिया गया है, इससे स्पष्ट है। मागधी, अर्धमागधी तो आर्ष प्राकृत रहकर जैन सूत्रों में ही बंद हो गई, वह भी एक तरह को छंदस् की भाषा बन गई, प्राकृत व्याकरणों ने महाराष्ट्री का पूरी तरह विवेचन कर उसी को प्राधार मानकर, शौरसेनी आदि के अंतर को उसी के अपवादों की तरह लिखा है। या यों कह दो कि देश- भेद से कई प्राकृत होने पर भी प्राकृत-साहित्य की प्राकृत- एक हो थी। जो पद पहले मागधी का था वह महाराष्ट्री को
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