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देवकुल

इस देवकुल में गाँव बसाकर रहते हैं। गुलेर के राजाओं तथा रानियों के मूहरे भी यहीं हैं। वे दो ढाई फुट ऊँचे हैं। उनके नीचे राजा-राणी' अक्षर भी लड़कपन में हम लोग पढ़ा करते थे। गाँव के बुड्ढे पहचान लेते हैं कि यह अमुक का मूहरा है। कई वर्षों तक हम अपने पितामह की प्रतिमा को पहचानते तथा उस पर जल चढ़ाते थे। पिछले वर्षों में खेलते हुए लड़कों ने या किसी और ने निवेश बदल दिया है। पत्थर रेतीला दरयाई बालू का है, इसलिये कुछ ही वर्षों की धूप और वर्षा से खुदाई बेमालूम हो जाती है। पुरुष की


  • पत्थर का यह हाल है कि वहीं जवाली ग्राम में गुलेर के एक राजा का बनाया हुआ एक मंदिर है, जिसको छाया को ओर की खुदाई की मूर्तियाँ ज्यों की त्यों हैं; किंतु बौछाड़वाले पखवाड़े पर सब मूर्तियाँ साफ हो गई हैं। उसो की रानी के बनवाए हुए जवाली के नौण पर शिलालेख था, जिसकी कुछ पंक्तियों के आदि के अक्षर आठ वर्ष हुए पढ़े जाते थे, किंतु दो वर्ष बीते जब मैं वहाँ गया तो उतने अक्षर भी नहीं पढ़े जा सकते थे, सब के सब खिर गए थे। इस समय लेख इतना ही पढ़ा जाता था-ओं स्वस्ति श्रीगणेशा "(१) वंदति परं पु प्र] ..... (२) मीश्वरं..."(३) पा [श] ..(४) (५) (६) (७) (८) या .... (E) नाघि [थि] ....(१०) भूयो भूयो .. ११) रानराज:--- ...(१२) लेपालनोदो ..."(१३) कृतोयम् । . (१४)। ये अंक पंक्तियों के अंत के सूचक हैं।