हो। किंतु यह भी असंभव नहीं कि वह राजगृह से वहाँ पहुँची हो । मूर्तियों के बहुत दूर दूर तक चले जाने के प्रमाण मिले हैं। नीतकर मूर्तियों का ले श्राना विजय की प्रशस्तियों में बड़े गौरव से उल्लिखित किया गया मिलता है। दिल्ली तथा प्रयाग के अशोक-स्तंभ भी जहाँ आजकल हैं, वहाँ पहल न थे । बढ़े परिश्रम स तथा युक्तियों से उठवाकर पहुँचाए गए हैं।
नानाघाट की गुफा में पहले सतवाहनवंशी राजाओं की कई पीढ़ियों की मतियाँ हैं । वह सातवाहनों का देवकुल है । मथुरा के पास शक (कुशन) वंशी राजाओं के देवकुल का पता चला है । कनिष्क की मूर्ति खड़ो और बहुत बड़ी है। उसके पिता वेम कैडफेसस की प्रतिमा बैठी हुई है। इस पर के लेख में 'देव- कुल' शब्द इसी रूढ अर्थ में आया है। इस राजा को लेख में कुशन-पुत्र कहा है । वहीं पर एक और प्रतिमा के खंड मिले हैं। यह कनिष्क के पुत्र की होगी । तीसरी मूर्ति पर के लेख को फोजल ने मस्टन पढ़ा था, किंतु बाबू विनयतोष भट्टाचार्य ने उसे शस्तन पढ़कर सिद्ध किया है कि यह चश्तन नामक राजा की मूर्ति है ।यह टालमी नामक ग्रीक भूगोलवेत्ता का समसामयिक था, क्योंकि
हयेनेव शुद्धरीतिमये हरौ । प्रकृति लम्भितस्तत्र शुद्धरीतिमयः पिता ॥८।६६ ॥ पितुः रीतिमयस्य रीतिवादारूढस्य प्रतिष्ठापितस्याग्रे रीति- मयं स्वात्मानं प्रतिष्ठाप्य राजा स सर्ग त्रिधा रीतिमयं कविरिवाकरोत ॥)। यों वैद्यनाथ का मंदिर चाहानों का देवकुल हुआ।