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देवकुल

है। तो भी सुधाकर काम से निबटकर सो जाने के कारण सिपाही के हाथ से पिट जाता है। अस्तु। भरत अयोध्या के पास आ पहुँचा। उसे पिता की मृत्यु, माता के षड्यंत्र और भाई के वनवास का पता नहीं। एक सिपाही ने सामने आकर कहा कि अभी कृत्तिका एक घड़ो बाकी है, रोहिणी में पुरप्रवेश कीजिएगा। ऐसी उपाध्यायों की आज्ञा है। भरत ने घोड़े खुलवा दिए और वृक्षों में दिखाई देते हुए देवकुल में विश्राम के लिये प्रवेश किया। वहाँ की सजावट देखकर भरत सोचता है कि किसी विशेष पव के कारण यह आयोजन किया गया है या प्रतिदिन की आस्तिकता है ? यह किस देवता का मंदिर है ? काई आयुध, ध्वज या घंटा आदि बाहरी चिह्न तो नहीं दिखाई देता। भीतर जाकर प्रतिमाओं के शिल्प की उत्कृष्टता देखकर भरत चकित हो जाता है । वाह, पत्थरों में कैसा क्रिया- माधुर्य है। प्राकृतियों में कैसे भाव झलकाए गए हैं ! प्रतिमाएँ बनाई तो देवताओं के लिये हैं, किंतु मनुष्य को धोखा देती हैं। क्या यह काई चार देवताओं का संघ है* ? यो सोचकर भरत


द्वार पर ऐसे कई हस्तचिह्न हैं । मुगल गदशाहों के परव.नों और खास सक्कों पर बादशाह के हाथ का पंजा होता था जो अंगूठे के निशान की तरह स्वीकार का बोधक था।

  • अहो क्रियामाधुर्य पाषाणान म्। अहो भावगतिराकृतीनाम् ।

दैवतोद्दिष्टानामपि मानुषविश्वासतासां प्रतिमानाम् । किन्नु खलु चतुर्दै- वतोऽयं स्तोमः?