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निबंध-रत्नावली

 प्रतिमाओं से होता है। नाटक रामचरित के बारे में है। भरत ननिहाल केकय देश में गया है । शत्रघ्न साथ नहीं गया है, इधर अयोध्या में ही है। भरत को वर्षों से अयोध्या का परिचय नहीं। पीछे कैकेयी ने वर माँगे, राम वन चले गए; दशरथ ने प्राण दे दिए । मंत्रियों के बुलाने पर भरत अयोध्या को लौटा आ रहा है । इधर अयोध्या के बाहर एक दशग्थ का प्रतिमागृह, देवकुल, बना हुआ है । इतना ऊँचा है कि महलों में भी इतनी ऊँचाई नहीं पाई जाती *। यहाँ राम-वनवास के शोक से स्वर्गगत दशरथ की नई स्थापित प्रतिमा को देखने के लिये रानियाँ अभी श्रानेवाली हैं । आर्य संभव की आज्ञा से वहाँ पर एक सुधाकर ( सफंदी करनेवाला) सफाई कर रहा है । कबूतरों के घोंसले और बीट, जो तब से अब तक मंदिरों का सिंगारते आए हैं, गर्भगृह ( जगमोहन ) में से हटा दिए गए हैं । दीवालों पर सफेदी और चंदन के हाथों के छापे ( पंचांगुल) दे दिए गए हैं । दरवाजों एर मालाएँ चढ़ा दी गई हैं। नई रेत बिछा दी गई


• इदं गृहं तत्प्रतिमा नृपस्य नः समुच्छ्यो यस्य स हम्यग्र । + आजकल भी चंदन के पूरे पंजे के चिह्न मांगलिक माने जाते हैं और त्योहारों तथा उत्सवों पर दरवाज़ों और दीवारों पर लगाए जाते है । जब सतियाँ सहमरण के लिये निकलती थीं तब अपने किले के द्वार पर अपने हाथ का छापा लगा जाया करती थीं। वह छापा खोदकर पत्थर पर उसका चिह्न बनाया जाता था। बीकानेर के किले के