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निबंध-रत्नावली

को सूद देना हराम होने पर भी देना ही पड़ता है वैसे यह तो फतवा दिया गया कि 'पापो हि सोमविक्रयी' पर सोम क्रय करना-उन्हीं गंधर्वो के हाथ गौ बेचकर सोम लेना--पाप नहीं कहला सका । तो भी सोम मिलने में कठिनाई होने लगी गंधर्वो ने दाम बढ़ा दिए या सफर दूर का हो गया, या रास्ते में डाक मारनेवाले 'वाहीक' आ बसे, कुछ न कुछ हुआ । तब यह तो हो गया कि सोम के बदले में पूतिक लकड़ी का ही रस निचोड़ लिया जाय, पर यह किसी को न सूझी कि सब प्रकार के जलवायु की इस उर्वरा भूमि में कहीं सोम की खेती कर ली जाय जिससे जितना चाहे उतना सोम घर बैठे मिले । उपमन्यु को उसकी माँ ने और अश्वत्थामा को उसके बाप ने जैसे जल में आटा घोलकर दूध कहकर पतिया लिया था, वैसे पूतिक की सीखों से देवता पतियाए जाने लगे।

अच्छा, अब उसी पंचनद में वाहीक श्राकर बसे । अश्व- घोष की फड़कती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दण्ड- कमंडल लेकर ऋषि भी भागे । अब ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश और आर्यावर्त की महिमा हो गई और वह पुराना देश-न तत्र दिवसं वसेत् ! युगंधरे पयः पीत्वा कथं स्वर्ग गमिष्यति !!!

बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले । वे लूटते मारते तो सही बेधर्म भी कर देते । बस, समुद्र-यात्रा बन्द ! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन