में बदल गया । इस हार ने संन्यासी साधुओं के छक्के छुड़ा दिये । सारी फौज इन स्त्री जाति के अहित, ब्रह्मचर्य पालन करानेवाले जरनेलों की तितर-बितर हो गई, पता ही नहीं लगता कहाँ गई।
जब ये हार गए तब इनके स्वरूप पर गढ़े हुए आश्रम और समाज, स्कूल और कालिज कब जीत सकते हैं ? इन रुंड मुंड संन्यासी रूप विद्यालयों को क्यों बना रहे हो ? जो बुद्ध और शकर का, ईसा और चैतन्य का दर्शन न करा सका वह भला मातृरहित, भक्तिरहित, कन्यारहित बी० ए० एम० ए० साधाररण अध्यापकों की मिट्टी और ईट के रूखे सूखे घर कब करा सकते हैं ?
दान
दान लेना नहीं, दान देना भी एक पवित्रता का साधन माना जाता है परन्तु दान देने का वह प्राचीन भाव तो काफूर की तरह इस देश से उड़ गया है । दान देने से तो अपने पापों को जिनसे धन आज कल कमाया जाता है, छिपाने की गरज है।
पवित्रता के चिंतन और ग्रहरण से क्या प्रयोजन है ? जिस तरह रिशवत दे देकर धन एकत्रित होता है उसी तरह ईशवर को भी रिशवत देकर स्वर्ग की मनशा हो रही है। ऐसा इकट्ठा करके वैसे दे देना, धर्मशाला बनवा देना, क्षेत्र लगवा देना, ईशवर की आँखों में नमक डालकर अपने आपको चतुर कहना-भारतवर्ष के आजकल के जीवन के निघंटु में