पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२२४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८४
निबंध-रत्नावली

जहाँ तुम को ऐसा बहशी बनाकर पवित्र बनाने के झूठे वचन लिखे हैं। किससे छिपाते हो? ज्यों ज्यों द्रौपदी को नग्न करने में लगे हो त्यों त्यों तुम्हारा वैराग्य और त्याग गंगा में बह रहा है। गेरुए कपड़े के नीचे वैसे के वैसे न सजे हुए पत्थर की तरह तुम निकले। ऐसा तिरस्कार करना और अपवित्र होना यह ता मन की चंचलता और ध्यान के अद्भुत नियमों को हड़ताल लगाना है। कदाचित् असंभव संभव हो जाय परंतु ऐसे वैराग्य और त्याग से जिसमें अपनी माताओं, बहनों, कन्याओं के नग्न शरीरों को नीलाम करके पवित्रता खरीदनी है तब कदाचित् पवित्रता न कभी मन में आयगी, न दिल में, न आत्मा में और न देश में ही! मेरा विचार है कि कारण चाहे कुछ भी हो, हमारे देश में इस झूठे त्याग और वैराग्य के उपदेश ने पवित्रता, अकपटता, सचाई का नाश कर दिया है। जिस उपदेश में मेरी माता का, मेरी बहन का, मेरी स्त्री का, मेरी कन्या का तिरस्कार हो और वैसे ही तुम्हारी का, भला वह कब मेरे तेरे हम सब के लिये-देश भर के लिये-कल्याण- कारी हो सकता है? सूर्य चाहे अंध होकर काला हो जाय, परन्तु जहाँ स्त्री-जाति का ऐसा तिरस्कार होता है वहाँ अप- वित्रता, दरिद्रता, दुःख, कंगाली, झूठ, कपट राज्य न करें, चांडाल गद्दी पर न बैठे यह कदापि नहीं हो सकता। हे बुद्ध भगवन् ! क्यों न आपने अपने बाद आनेवाले बुद्ध के नाम को ले लेकर संसार को अपवित्र बनानेवालों का