के दर्शन हुए, कमीज और पाजामा उतार दिया। जोश आया, वैराग्य आया, गेरुए रंग के वस्त्र धारण किए हुए फिर रहे हैं और दिन कटता ही नहीं, रात गुजरती ही नहीं। जंगल खाता है । एकांत भाता ही नहीं। सभाएँ हो, पुलपिट हो, कालिज हो, स्कूल हो, आप अपने आपको दान देने को तैयार हैं। बलिदान हो चुका, यज्ञ हो गया। स्त्रा का मुख देखना पाप है। बड़े बड़े वैराग्य के ग्रंथ खोल, गेरुआ रँगे हम अपनी माता बहिन और कन्याओं को नग्न कर करके उनके हड्डी मांस की नस नस को गिन गिनकर तिरस्कार करते हैं। क्यों भाई ! बिना इसके भला वैराग्य और ब्रह्मचर्य का पालन कब होता है ? वैराग्य और त्याग के उपदेश हो रहे हैं कि बस आत्मिक पवित्रता इसी से आएगी। जगत् बस अभी जीता कि जीता, किला सरहो गया। आपका बोलबाला हो गया।
नहीं प्यारे ! जरा थम जाओ, जरा अपने शरीर को देखो, जरा बुद्ध के शरीर को देखो, जरा शंकर भगवान के रूप को देखो, जरा बड़े बड़े महात्माओं के शरीर को देखो। यदि ये शरीर पवित्र हैं तब उनकी माता का शरीर किसलिये अपवित्र मान लिया ! यदि इन सबको पीतांबर पहनाकर पूजते हो तब वैराग्य और त्याग में मस्त लोगो, भला इनकी माताओं को, इनकी बहनों को, इनकी कन्याओं को क्यों नग्न कर रहे हो ?
द्रौपदी की साड़ियाँ उतार उतार अपनी पवित्रता के साधन कर रहे हो ? फूँक क्यों नहीं डालते उन ग्रंथों या हिस्सों को