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निबंध-रत्नावली

शिवजी ने सिंघी बजाया । सोने के बर्तन में दूध भरे गाँवों की स्त्रियाँ भिक्षा देने आई हैं। ठहरते तो नहीं, जा रहे हैं । मंगल, आनंद, सुख की वर्षा करते जा रहे हैं।

(२७ ) कलकत्ते के पास एक निरक्षर नंगा कालीभक्त है। कालीभक्त क्या? ब्रह्मकांति का देखनेवाला फकीर है। इसके नेत्र और इसका सिर, मेरे तेरे नेत्रों और सिरों से भिन्न हैं। किसी और धातु के बने हुए हैं। मामूली साधु नहीं, जो छू छू करते फिरते हैं। एक कोई स्त्री आई। श्राप चीखकर उठे। माता कहकर उसके चरणों पर सिर रख दिया। मेरी तेरी निगाहों में यह कंचनी ही थी। पर रामकृष्ण परमहंस की तो जगत् माता निकली । देखकर मेरी आँखें फूट गई। और मैंने भी दौड़कर उसके चरणों में शीश रख दिया । तब उठाया, जब आज्ञा हुई । दरिद्रो ! तुम क्या दे रहे हो ? मेरे सामने परमहंस ने कुल विराट् इस माता के चरणों में लाकर रख दिया । नेत्र खोल दिए । अहिल्या की तरह अपना साधारण शरीर छोड़कर यह देवी आकाश में उड़ गई। कहोगे "पूर्ण" तो मूर्तिपूजक हो गया? कुछ भी कहो- मेरे मन की कोठरी ऐसी मूर्तियों से भरी है । इस बुतपरम्ती से पवित्रता मिलने के भाग खुलते हैं, पवित्रता को अनुभव कर ब्रह्मकांति का दर्शन होता है।

कंगाल तो मैं हूँ जरूर और मुझमें कोई चित्र खरीदने का बल नहीं । परंतु मित्रों ! आकाश से एक दिन अमूल्य चित्रों