पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१८४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४४
 

निबंध-रत्नावली

इनका जीवन बर्फ की पवित्रता से पूर्ण और वन की सुगंधि से सुगन्धित है। इनके मुख, शरीर और अंतःकरण सुफेद, इनकी बर्फ, पर्वत और भेड़े सुफेद। अपनी सुफेद भेड़ों में यह परिवार शुद्ध सुफेद ईश्वर के दर्शन करता है।

जो खुदा को देखना हो तो मैं देखता हूँ तुमको ।
मैं देखता हूँ तुमको जो खुदा को देखना हो ।।

भेड़ों की सेवा ही इनकी पूजा है। जरा एक भेड़ बीमार हुई, सब परिवार पर विपत्ति आई। दिन रात उसके पास बैठे कांट देते हैं। उसे अधिक पीड़ा हुई तो इन सब की आँखें शून्यं आकाश में किसी को देखते देखते गल गई। पता नहीं ये किसे बुलाती हैं। हाथ जोड़ने तक की इन्हें फुरसत नहीं । पर, हां, इन सब की आँखें किसी के आगे शब्दरहित, संकल्परहित मौन प्रार्थना में खुली हैं। दो रातें इसी तरह गुजर गई। इनकी भेड़ अब अच्छी है। इनके घर मंगल हो रहा है। सारा परिवार मिलकर गा रहा है। इतने में नीले आकाश पर बादल घिर आए और झम झम बरसने लगे। माने प्रकृति के देवता भी इनके आनंद से आनंदित हुए। बूढ़ा गड़रिया आनंद-मत्त होकर नाचने लगा। वह कहता कुछ नहीं; पर किसी दैवी दृश्य को उसने अवश्य देखा है। वह फूले अंग नहीं समाता, रग रग उसकी नाच रही है। पिता को ऐसा सुखी देख दोनों कन्यायों ने एक दूसरे का हाथ पकड़कर पहाड़ी राग अलापना आरंभ कर दिया।