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आचरण की सभ्यता

उतार-चढ़ाव को पार करने से थका हुआ, भूखा और सर्दी से ठिठग हुआ राजा उस बत्ती के पास पहुँचा । यह एक गरीब पहाड़ी किसान की कुटी थी। इसमें किसान, उसकी स्त्री और उनके दा तीन बच्चे रहते थे। किसान शिकारी राजा को अपनी झोपड़ी में ले गया। आग जलाई। उसके वस्त्र सुखाए। दो मोटी मोटी रोटियाँ और साग उसके आगे रखा। उसने खुद भी खाया और शिकारी को भी खिलाया। ऊन और रीछ के चमड़े के नरम और गरम बिछौने पर उसने शिकारी को सुलाया। आप बे-बिछौने की भूमि पर सो रहा। धन्य हे तू , हे मनुष्य ! तू ईश्वर से क्या कम है ! तू भी तो पवित्र और निष्काम रक्षा का कर्ता है । तू भी आपन्न जनों का आपत्ति से उद्धार करनेवाला है।

शिकारी कई रूपों का जार ही क्यों न हो, इस समय तो एक रोटो और गरम बिस्तर पर-अग्नि की एक चिनगारी और टूटी छत पर-उसकी सारी राजधानियाँ बिक गई। अब यदि वह अपना सारा राज्य उस किसान को, उसकी अमूल्य रक्षा के मोल में, देना चाहे तो भी वह तुच्छ है; यदि वह अपना दिल ही देना चाह तो भी वह तुच्छ है। अब उस निधन और निरक्षर पहाड़ी किसान की दया और उदा- रता के कर्म के मौन व्याख्यान को देखो। चाहे शिकारी को पता लगे चाहे न लगे, परंतु राजा के अंतस् के मौन-जीवन में उसने ईश्वरीय औदार्य की कलम गाड़ दी। शिकार में अचा-