पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१२

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(5) पढ़ने चले गए। वहाँ अभी ये ग्रेजुएट भी न हो पाए थे कि इन्हें जापान जाने के लिये एक छात्रवृत्ति मिली। अतएव संवत् १९५७ में ये जापान चले गए और वहाँ तीन वर्ष रहकर टोकियो की इम्पीरियल युनिवर्सिटी में इन्होंने व्यावहारिक रसायन-शास्त्र का अध्ययन किया। इन्हीं दिनों स्वामी रामतीर्थ जापान गए थे। उनसे सरदार साहब की भेंट हुई । उनके व्याख्यानों को सुनकर वे बड़े प्रभावित हुए और पूरे वेदांती बन गए। वे इस संबंध में स्वयं लिखते हैं-"इसी समय जापान में एक भारतीय संत से, जो भारतवर्ष से आया था, मेरी भेट हो गई। उन्होंने मुझे एक ईश्वरीय ज्योति से स्पर्श किया और मैं संन्यासी हो गया। मगर मैं देखता हूँ कि उन्होंने मेरे हृदय म और भी अनेक भाव, जिनके लिए भारत के आधुनिक साधु बहुत व्यग्र हैं, भर दिए, जैसे राष्ट्र का निर्माण, भारत की महत्ता को जाग्रत करना और कर्म में निरत रहना। यद्यपि मैं जीवन की व्यर्थ बातो में आकर्षित नहीं होता था, परन्तु जिमने मुझे श्रात्मज्ञान की इतनी बातें बताई थीं, उसकी प्राज्ञा शिरोधार्य करके मैं अपनी रसायन की पुस्तकें फेंक-फाँककर भारत की ओर चल दिया।" इस प्रकार ये स्वामी रामतीर्थ के अनुयायी और अंतरंग शिष्य हो गए। यहां कुछ दिनों तक संन्यासी- वेष में रहकर इन्होंने गृहस्थाश्रम का पालन करना उचित समझा । इनका विवाह हो गया और ये देहरादून के 'इम्पीरि. यल फारेस्ट इंस्टीट्यूट' में केमिस्ट के पद पर नियुक्त हो गए।