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कन्यादान

हो। वह चित्रकारी ही क्या जिसने हजार बार चित्रकार को इस योग-निद्रा में न सुलाया हो ।

कवि का देखिए, अपनी कविता के रस-पान से मन होकर वह अंत:करण के भी परे आध्यात्मिक नभाे-मंडल के बादलों में विचरण करता है। ये बादल चाहे आत्मिक जीवन के केंद्र हों, चाहे निर्विकल्प समाधि के मंदिर के बाहर के घेरे, इनमें जाकर कवि जरूर सोता है। उसका अस्थि-मांस का शरीर इन बादलों में घुल जाता है। कवि वहाँ ब्रह्म-रस का पान करता है और अचानक बैठे बिठाए सावन-भादों के मेव की तरह संसार पर कविता को वर्षा करता है। हमारी आँखे कुछ ऐसी ही हैं। जिस प्रकार वे इस संसार के कर्त्ता काे नहीं देख सकतीं उसी प्रकार आध्यात्मिक देश के बादल और धुंध में साेए हुए कलाधर पुरुष का नहीं देख सकती। उसकी कविता जाे हमकाे मदमत्त करती है वह एक स्थूल चीज है और यही कारण है कि जाे कलानिपुण जन प्रति दिन अधिक से अधिक उस आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है वह अपनी एक बार अलापी हुई कविता का उस धुन से नहीं गाता जिससे वह अपने ताजे से ताजे दोहां और चौपाइयों का गान करता है। उसकी कविता के शब्द केवल इस वर्षा के बिंदु हैं। यह तो ऐसे कवि के शांतरस की बात हुई। इस तरह के कवि का वीररस इसी शांतरस के बादलों की टक्कर से पैदा हुई बिजली की गरज और चमक है। कवि को कविता में देखना तो