नारी-समाज में जागृति , नारी-जागरण का इतिहास इस देश में पुराना नहीं है । यद्यपि भारतीय नारी का रूप सदा उज्वल, भव्य एवं मधुर रहा है, तथापि अन्य आन्दोलनों के समान सामूहिक रूप से नारी-स्वातन्त्र्य की हलचल इसी युग में विशेष दिखाई पड़ी। विज्ञान, समाज- शास्त्र, नागरिक-शास्त्र, राजनीति, और धर्मशास्त्र के नवनव रहस्योद्घाटन के साथ समस्त विश्व में जो एक क्रान्ति उत्पन्न हुई, उसका प्रभाव भारत पर भी पड़ना स्वाभाविक था। धर्म और समाज के बन्धन ढील होने लगे, प्राचीन आस्थायें क्षीण होने लगी, विश्वास के स्थान पर तर्क ने आसन जमाया, जाति-जाति और व्यक्ति-व्यक्ति में स्वाभिमान जागने लगा। अर्धनिद्रित भारत में फिर चेतना की लहर उठी। नारी ने भी नेत्र खोले । पहले तो उसका तीव्र विरोध किया गया । ऋषियों, महात्मात्रों और विद्वानों के लम्बे-लम्ब वाक्य विरोध में रखे गये; 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्', 'नस्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति', 'जिमि स्वतन्त्र हुइ बिगरहिं नारी', 'अवगुन आठ सदा उर रहहीं आदि । धर्म शास्त्रों पर अखण्ड विश्वास करनेवाले आस्तिक सुधारकों ने शास्त्रीय तर्को का उत्तर शास्त्रीय तर्को से दिया । 'यथेमांवाचं कल्याणीम्' जैसे मन्त्र पेश किये गये किन्तु ये कब तक कारगर होते । नित्य नई समस्यायें सामने आई और उनका समाधान आवश्यक हुआ । शास्त्रीय तर्क एक सीमा तक ही काम दे सकते थे इसलिय अन्त में बौद्धिक तर्क, विवेक और विशेषकर अन्य देशों के अनुकरण का प्राधान्य हुआ। फिर भी हमें भारत में नारीस्वतन्त्रता का स्वर ऊँचा करने वाले श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती, राममोहनराय जैसे महापुरुषों का श्रद्धा से मस्तक झुकाना चाहिये जिनके प्रयत्नां के फलस्वरूप हमारा आन्दोलन आगे बढ़ सका है । नारी-समस्या-मूलक जो साहित्य गत महायुद्ध के पूर्व निकला है उसमें आप को नारी सुधार की भावना ही मुख्य मिलेगी । नारी का सावित्री, सीता, दमयन्ती
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