सामाजिक बन्धन तो दूर; बहुत कम बहनें ब्याह, जनेऊ को छोड़कर अन्य संस्कारों के नामों तक से परिचित रहती हैं । माता के इस अज्ञान का बालक पर क्या प्रभाव पड़ता है यह कहने की आवश्यकता नहीं। इसी अज्ञान के कारण वे अपना काफी धन दान-पुण्य के नाम पर इस तरह व्यय करती हैं जिससे केवल समाज के निकम्मे और दूषित अंग की ही वृद्धि होती है । पण्डों, पुजारियों, तीर्थो, भिखारियों, ज्योतिषियों के नाम पर जो दान-पुण्य होता है, वह और क्या है ? रोना-गाना दुख होता है, रोना आता है । खुशी होती है, हँसना-गाना स्वाभाविक है । इसे कोई रोक नहीं सकता। यह प्राकृतिक है किन्तु इसका स्वाँग करना हास्यास्पद है । गुजरात • का जिस तरह गर्वा नृत्य प्रसिद्ध है उसी तरह रोना भी है। किसी बड़े-बूढ़े, अड़ोसी-पड़ोसी और नाकाम के मरने पर भी बिना दर्द उमड़े केवल प्रदर्शन के लिये छाती पीट-पीटकर रोने का क्या अर्थ है ? मारवाड़ी स्त्रियाँ भी जुलूस के रूप में झुण्ड बनाकर सड़कों पर रोती हुई निकलती है । लड़कियों के आने पर और विदा होते समय चिल्ला चिल्लाकर रोना भी इसी प्रकार स्वाँग लगता है । पंजाब में तो मृत्यु-शोक पूरे वर्ष भर मनाया जाता है । वहाँ कभी कभी तो हँसती खेलती स्त्रियाँ बाहर से किसी सम्बन्धी के आ जाने पर एकाएक चिल्ला पड़ती हैं । न जाने यह कैसा स्वागत है ? और मज़ा यह कि दो मिनट रोने के बाद फिर वे ही हँसो मजाक के दौर चलने लगते हैं । कई समाजों में तो ये रोने वाली भाड़े पर लायी जाती हैं । पुरुषों को ऐसा करते कोई नहीं देखता । आखिर रोने का सारा ठेका स्त्रियों ने ही क्यों अपने ऊपर ले रखा है ? इसी प्रकार गाने का रिवाज़ हैं। इसके लिये स्त्रियाँ किराये पर मिल जाती हैं। जब जैसा मौका हो ये स्त्रियाँ उसी प्रकार के गीत गा देंगी। ये गीत, गीत रहते हैं या कहानी, कहा नहीं जा सकता । प्रायः गीत बातचीत के स्वर में चलते हैं, बिना ताल-स्वर के मनमाने ढंग से । खैर; घर में यह सहन भी किया जा सकता है । कहावत है 'अपना घर चाहे सो कर-पराया घर थूकने का डर' किन्तु सड़क तो न अपना घर है और न पराया। उसपर तो आदमी की तरह चलना चाहिये । जब ये स्त्रियाँ झुण्ड बना कर सड़क पर गाती हुई निकलती हैं तो इन्हें यह ध्यान नहीं रहता कि सड़क पर और भी किसी को चलना है । पीछे से आवाज आती है, ऐ वाई ! ऐ मारवाड़ी ! हटो, बाजू हो । तब शरद के बादल की तरह सारी स्त्रियाँ तितर बितर हो जाती हैं । ऐसा लगता है मानों कई दिनों से.
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