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ही रहते हैं। स्त्री-सुधार और राष्ट्र-प्रेम के द्योतक कांग्रेस के प्रथम आन्दोलन में यह बात स्पष्ट रीति से समाज के सामने आगई कि समानाधिकार के विवाद की अपेक्षा खरा कर्तव्य पालन ही अधिक महत्वपूर्ण है। उससे स्त्रियों का दर्जा बढ़ा और उनके मन में भयंकर क्रांति उत्पन्न हुई। इसमें पद, योग्यता अथवा सम्पत्ति की लालसा नहीं थी, राष्ट्र-प्रेम और कर्तव्य की भावना ही इसमें समान रूप से दृष्टिगोचर हाती थी।

प्रथम तो स्त्रियों का दारुण निराशा, प्रचण्ड अपयश और असह्य अपमान का सामना करना पड़ा। वे उचित मार्ग ढूँढ रही थीं, लेकिन वह मिलता नहीं था। श्रेष्ठ सिद्धान्त सामने थे, लेकिन मन की अस्थिरता के कारण वे क्षण भर में ही वायु-लहरों की तरह विलीन हो जाते थे।

मनुष्य का जीवन क्षणिक ही है। कब, कैसे और कहाँ उसका अन्त हो जायगा, इसका किसी का भी कुछ पता है? मानव, सृष्टि के आदि से ही अपने जीवन को सुन्दर और उपयुक्त बनाने का लगातार प्रयत्न कर रहा है। लेकिन उसकी सफलताओं पर विचार करने से क्या पता चलता है? मानव की विचार शक्ति परिमित और संकुचित है। आज भी यह बात उतनी ही सत्य है जितनी युगों पूर्व थी। ऐसी ही परिस्थितियों में स्त्री-समाज भी पड़ा हुआ है। उसकी बुद्धि का विकास, उसका सामाजिक अधिकार और जीवन-विषयक प्रश्न बड़े उलझन में पड़े हैं। ऐसे अनेक झगड़ों और अनिष्टकारक रीति-रिवाज़ों की चर्चा इस पुस्तक में की गई है, जिसके लिय लेखिका अभिनन्दन की पात्र हैं। लेखिका ने कितने ही रीति-रिवाजों और रूढ़ियों की उचित आलोचना, बड़ी ही समर्पक भाषा में की है। भारतीय संस्कृति का सम्पूर्ण अभिमान, स्त्रियों की प्रगति का सात्विक अभिमान और उनको गड़नेवाली सच्ची असुविधाओं का अत्यन्त सुन्दर भाषा में व्यक्त किया गया है।

इसमें एक वाक्य भी ऐसा नहीं है जिसमें झूटा अभिमान, कट्टर दुराग्रह अथवा लेखिका का 'मैं' हठपूर्वक बोल रहा हो। प्रखर बेचैनी और साथ ही उत्तम संयम के साथ लेखिका ने इस बात का प्रयत्न किया है कि स्त्री-प्रगति के सुधार की दिशा स्त्रियों को पट जाय। महिलाओं के जीवन में प्रतिदिन घटने वाली बातों का, समाज-सुधार में कैसे उपयोग किया जाय इस पर उत्तम विचार व्यक्त किये गये हैं।

इन विचारों में बन्धन, पवित्रता और सादगी का सौन्दर्य, खुला दृष्टिगत होता है। हम ऐसा क्यों न समझे कि आज की स्त्री यदि अपनी संकुचित भावनाओं को