हिन्दी साहित्य और स्त्रियाँ
प्राचीन हिन्दी साहित्य को यद्यपि मीरा, सहजो जैसी देवियों की वाणी के मधुर रस ने सिंचित किया था तथापि पीछे अपनी सामाजिक अधोगति के साथ स्त्रियाँ साहित्य-क्षेत्र में भी बहुत पिछड़ गईं। आज फिर वे हिन्दीसाहित्य में ऊँचा स्थान प्राप्त कर रही हैं यद्यपि उनका ध्यान अभी सन्तोषजनक मात्रा में इधर आकृष्ट नहीं हो पाया है। हो भी कैसे, जब कि उनका शिक्षण ही दूषित और अपूर्ण है। पहले तो लोग स्त्रियों को शिक्षण देने के ही विरुद्ध हैं। वे स्वयं ही नहीं पढ़ते लिखते तो स्त्रियों को क्या पढ़ावेंगे। दूसरे जो लोग शिक्षित हैं वे पहले वालों से एकदम उल्टी दिशा में बढ़ रहे हैं। वे समझते हैं कि ज्ञान का भण्डार अंग्रेजी में ही है। वे अपनी स्त्रियों और लड़कियों को केवल अंगरेजी की ऊँची से ऊँची शिक्षा देना चाहते हैं। फिर वे कैसे समझें कि भारतीय छात्र के शिक्षण में हिन्दी का क्या महत्व है और धन बरबाद करने के बाद भी कितनी स्त्रियाँ अंग्रेजी साहित्य में स्थान पाने योग्य बनती हैं? यदि हमारे नेता चाहें तो वे स्त्रियों को इस दुर्गति से बचा सकते हैं क्योंकि अधिकतर हमारे नेताओं के ही मन पर अँगरेजी साहित्य का रंग चढ़ा हुआ है। फिर भी स्त्रियों ने अनेकों प्रतिबन्ध होते हुए भी हिन्दी साहित्य में अच्छा स्थान प्राप्त कर रखा है। वे पुरुषों की टक्कर का साहित्य लिखती हैं। स्त्रियों को यदि पुरुषों के समान पढ़ाया जाय और वह भी अपना साहित्य, तो वे आश्चर्यजनक उन्नति कर सकती हैं।
आज ऐसी अनेकों स्त्रिया हैं जिन्होंने साहित्य में पुरुषों के समकक्ष स्थान पा रखा है। श्री. महादेवी वर्म्मा का स्थान हिन्दी साहित्य में बहुत ऊँचा है। सुभद्रादेवी चौहान को कौन नहीं जानता? श्री कमलादेवी चौधरी, श्री यशोदादेवी, श्री शिवरानी देवी, श्री तेजरानी, श्री उषादेवी श्री सुमित्राकुमारी, श्री. तोरनदेवी, श्री विद्यावती, श्री रतना