सिनेमा और स्त्रियाँ वर्तमान समय में चित्रपट नागरिक लोगों के जीवन के साथ घुल-मिल से गये हैं । जीवन के लिय जैसे और कार्य उपयोगी और ज़रूरी समझे जाते हैं वैसे ही सिनेमा देखना भी आवश्यक समझा जाने लगा है। दिन-रात जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिय श्रम करते-करते मनुष्य का मन इतना ऊब उठता है कि फिर उसे. उन कार्यों में उत्साह और प्रेरणा के अभाव का अनुभव होने लगता है । इसलिये मन को ताज़ा और उत्साही बनाये रखने के लिये कुछ न कुछ मनोरञ्जन की आवश्यकता होती ही है । आज से कुछ पहले जब कि सिनेमा का इतना प्रचार नहीं था, मनोरञ्जन के अन्य साधन थे। उस समय नाटक और सर्कस आदि में लोग ऐसा ही रस लेते थे । परन्तु असुविधाओं की अधिकता के कारण उनका प्रचार धीरे-धीरे कम होता गया। दूसरी बात यह है कि जैसे एक ही फिल्म बीसों जगह एक साथ दिखाई जा सकती है वैसे नाटक या सर्कस नहीं दिखाये जा सकते । गरीब लोग जहाँ नाटक को महीने भर में एक बार देखते हैं वहाँ सिनेमा को महीने भर में चार बार देख सकते हैं। उन्हें खर्च भी ज्यादा नहीं करना पड़ता। यदि सिनेमा के लिये अधिक भी करना पड़े तो लोग खुशी से करते हैं। हमारे देश की आर्थिक दशा दिन पर दिन गिरती जा रही है.। गरीबों को ठीक समय पर खाने को रोटी और पहनने को कपड़े नहीं मिलते; किन्तु सिनेमा घरों में बहुत बड़ी भीड़ जमा रहती है । इतना ही नहीं सिनेमा घरों में घुसने के लिये लड़ाई झगड़े और हुल्लडबाजी भी कम नहीं होती । इससे स्पष्ट ज़ाहिर होता है कि हमारे यहाँ सिनेमा का शौक बेहद बढ़ता आ रहा है । यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं कि जनता द्वारा पसन्द किये जाने के कारण
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