मेरे दृष्टिकोण से-
मैंने श्रीमती राधादेवी गोयनका की "नारी-समस्या" नामक पुस्तक सम्पूर्ण पढ़ी। इसमें ज़रा भी संशय या अतिशयोक्ति नहीं कि यह पुस्तक स्त्रियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है तथा सच्ची लगन और स्त्री-जाति की प्रगति की भावना से प्रेरित होकर लिखी गई है। इसके प्रत्येक वाक्य में स्त्री-सुधार की भावना, स्पष्ट भाषा शैली, और लेखिका के मन में स्थित आर्य-संस्कृति के दर्शन होते हैं। भारतीय नेता और 'कर्मवीर' के प्रसिद्ध सम्पादक पंडित माखनलालजी चतुर्वेदी ने इच्छा प्रगट की कि एक स्त्री लेखिका की ऐसी पुस्तक पर एक महिला को ही भूमिका लिखनी चाहिये। मेरे विचार में यह एक गम्भीर और मार्मिक बात है। मेरा तो स्वच्छ और सीधा मत यह है कि एक स्त्री लेखिका की नवीन और पहिली श्रेष्ठ पुस्तक पर एक महिला द्वारा मत व्यक्त करने का पथ सम्मान, मनोभाव और विचार, इन तीनों दृष्टियों से जिस तरह जोखिम से भरा हुआ है, उसी तरह महत्व का और स्पष्ट दिशा दर्शन का भी है।
स्त्री-सुधार का प्रश्न समाज के सामने उपस्थित है। यह प्रश्न उतना ही प्राचीन है जितना यह संसार। इस पर दो मत नहीं हो सकते कि इस प्रश्न को हल करने का प्रयत्न, सब से पहिले हमारे समाज-सुधारक बन्धुओं ने ही बड़ी लगन के साथ किया। इसके बाद ही स्त्री शिक्षा की वृद्धि के साथ अनेक विदुषी स्त्रियों के इस विषय पर मत व्यक्त होने लगे। जिस प्रान्त को सबसे पहिले अंग्रेजी भाषा के शिक्षण का लाभ मिला, वहाँ के लोगों की मनःस्थिति में पड़ने वाले अन्तर का द्योतक यह स्त्री-सुधार शब्द प्रचारित हुआ। इसमें मतभेद नहीं हो सकता कि यदि किसी विद्वान पुरुष को एक मूर्ख स्त्री के साथ जीवन बिताना पड़े तो उसकी गृहस्थी की शोभा और सौन्दर्य अपूर्ण और अव्यक्त रह जाते हैं। जिस स्त्री जाति को प्रकृति ने, विपुल सात्विक बल, अद्भुत आकर्षण शक्ति, और कोमल भावनाओं से युक्त मातृ-हृदय दिया है, उसे अशक्त, दुर्बल और हीन बतलाने का प्रयत्न निष्फल है, अशक्य है, प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है। जो लोग स्त्री को पुरुष के इंगित पर चलने वाली वस्तु मात्र मानते हैं, उन्हें अपनी संसार-यात्रा में श्रेष्ठ मार्ग पर चलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। जीवनान्त पर्यन्त ऐसे व्यक्ति अभागे