हमारी वेष-भूषा नवीनता से या पच्छिम से प्रभावित होकर मेंहदी और पान की जगह रंग लगा लेती हैं किन्तु मैं इसे केवल विदेशी मानने के लिये तैयार नहीं क्योंकि अोठों की और हाथों की लाली हमारे यहाँ बहुत प्राचीन है । चाहे वह मेंहदी और पान में ही रही हो । मैं गर्व के साथ कहूंगी कि भारत की लाज आदि से अन्त तक स्त्रियों के हाथ ही रही है । उनका भूत तो उज्जवल है ही पर वर्तमान भी कम नहीं । पुरुष यद्यपि पूरे अँगरेज़ बने. रहते हैं पर स्त्रियों ने आज भी विदेशी मेमों का बाना नहीं पहिना है । कोई एक आध स्त्री ने कहीं छुपेछुपाये कभी गाऊन पहिना हो तो दूसरी बात है पर पुरुषों के कोट, बुट, हैट आदि स्पष्ट नये आ गये हैं । व्यक्तिगत दृष्टि से जैसा पहिले कह आई हूँ कतिपय स्त्रियों ने-किसी ने नकल के रूप में और किसी ने असल के रूप में वेषभूषा में परिवर्तन किया है पर समाज की दृष्टि से हमारी वेषभूषा आज भी वही है जो एक शताब्दी पहिले थी। व्यक्ति की वेषभूषा का चुनाव समाज की दृष्टि से, और समाज की वेषभूषा का चुनाव राष्ट्र की दृष्टि से होना जरूरी है । व्यक्ति की दृष्टि राष्ट्र की वेषभूषा पर रहनी चाहिये और राष्ट्र ही की वेषभूषा पहिनना चाहिये । अब यह सोचना है कि राष्ट्र की वेषभूषा है कोनसी ? तिरंगे झण्डे की तरह उसका चिन्ह तो अभी किसी ने निर्धारित नहीं किया है पर जिस तरह समस्त भारत से सम्बन्धित होने के कारण और अधिकतर जनता की भाषा होने के कारगा हिन्दी ने राष्ट्र-भाषा का स्थान पा लिया उसी तरह जो वेषभूषा समस्त भारत से सम्बन्ध रखती हो और अधिक से अधिक जनों की हो वही राष्ट्रीय वेषभूषा हो सकती है । साड़ी, लहँगा और चड्डी चोली के ऊपर ब्लाउज़ या जम्फर स्त्रियों की यही पोशाक अधिकतर भारत में प्रचलित है । उसी प्रकार भाल पर बिन्दी, बिना किसी आडम्बर के सुन्दर केशराशि कानों में बुन्दे, गले में कण्ठी हाथों में दो चार चूड़ियाँ, अँगुलियों में एक आध अँगूठी अधिकतर भारत की महिलाएँ ये ही आभूषण पहिनती हैं। आजकल की फेशनेबुल स्त्रिया भी अधिकतर अपने पतियों के दिल पर प्रभाव डालने के लिये शायद पच्छिम की ओर ललचायी दृष्टि से देखा करती हैं और अपने को सजाने में पूरी शक्ति लगाती हैं। फिर भी उनकी वेषभूषा एक दम ‘फारिन' नहीं हो सकी । यही भारतीय संस्कृति है, आदर्श है, सभ्यता है । सब कुछ खोने के बाद भी जब तक संस्कृति और सभ्यता की एक हल्की किरण बाकी है तब तक सभी कुछ है ।
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