पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/४५

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समाज का भूत "क्या करूँ मुझे तो कुछ भी विरोध नहीं । मुझ से परदा और शर्म न की तो न सही परन्तु काई देखेगा तो क्या कहेगा ? लोग यही कहेंगे कि तुम अपनी बहू को भी नहीं सँभाल सकीं । योंही बढ़-बढ़ कर बातें किया करती थीं।" उस दिन जब मैं मालती बहिन की सास के पास गई और परदे की बीमारी से होने वाली समाज की दुर्दशाओं की ओर उनका ध्यान ले गई तो बहिनजी के मुख से उपर्युक्त उद्गार निकल पड़े। मैंने कहा “बहिनजी ! काई क्या कहेगा' बस इसी डर से आप उत्तम कार्यों को भी नहीं करना चाहतीं । “अपनी आत्मा को मजबूत बनाइये । पहिले आप परदे की बुराइयों को खूब अच्छी तरह समझ लें तो फिर आप को इतना डर नहीं लगेगा। कोई कुछ कहे तो आप भी तो उससे कुछ कह सकती हैं । और देखिये, मुझ से तो काई कुछ नहीं कहता । मैं तो परदा नहीं करती। आम सभाओं में व्याख्यान भी देती हूँ और खुले बाज़ार ऊँची गरदन करके चलती भी हूँ ।” “लेकिन बाज़ार में ऊँची गरदन करके चलना भी तो अच्छा नहीं है। स्त्रियों का तो नीचा सिर करके और नज़र को पैर के अँगूठे पर जमाकर ही चलना चाहिये । कम से कम आँखों की शर्म तो न खोनी चाहिये ।” मैंने कहा आप का कहना बिलकुल ठीक है बहिनजी, 'आँखों की शर्म की तो मैं भी पक्षपातिनी हूँ किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि हम स्त्रियाँ नज़रों को धरती में ही गड़ाये रखें । हमारे सामने से यदि हाथी भी निकल जाय तो हमारी दृष्टि में न आवे । इसीलिये तो आज हमारी दृष्टि इतनी मोटी होगई है कि चाहे हम सड़क पर घूमें चाहे घर में केवल उसी वस्तु को देख पाती हैं जो हमारे मन के सामने रहती है। मजाल क्या जो दूसरी वस्तु हमारी नज़र में आ जावे । यदि सास