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नारी के बन्धन
 

रह सकता है, स्त्री इसमें बाधक नहीं होती। साहित्य, संगीत चित्रकारी आदि कलाओं में, सेवा और त्याग आदि परोपकार के कामों में तो वह उसका साथ देती ही है, समय पर खिलाती-पिलाती है, सेवा करती है और पति के सुकर्मी होने पर फूली नहीं समाती किन्तु पति का कुमार्ग की धुन लगने पर भी वह अपना मन मसोसकर ही रह जाती है क्योंकि पुरुष मालिक है और स्त्री दासी। हमारी समाज-व्यवस्था, नीति और धर्म भी इसका अनुमोदन करते हैं। पुरुष न भी कमावे तो स्त्री रूखा-सूखा खाकर गुजारा कर लेती है। किन्तु यदि स्त्री किसी दिशा में स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्त होती है तो पुरुष का बहुत नाग़वार जँचने लगता है क्योंकि मनुष्य को अपनी सुविधा पाये बिना चैन नहीं पड़ती, चाहे दूसरा काम हो या न हो। वक्त पर यदि पुरुष का काम न हुआ तो घर वाले स्त्री की उस कारणभूत प्रवृत्ति को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिये कमर कसकर तैयार हो जाते हैं। ऐसी हालत में स्त्री का अपने उद्देश्य पर स्थिर रहना कठिन हो जाता है। उसका उत्साह ढीला पड़ जाता है। मैं यह नहीं चाहती कि स्त्रियों को अपने हिस्से में आये हुए घर के काम छोड़कर बाहिरी काम के पीछे पड़ना चाहिये किन्तु सच्चे कार्यकर्त्ता पर किसी प्रकार के बन्धन, रुकावटें और नियम नहीं लगाये जाने चाहिये और वह इन बातों का सहन भी नहीं कर सकता। आज भारत की स्त्री इसीलिये सार्वजनिक क्षेत्र में पनप नहीं पाती कि ज़रा आगे बढ़ते घर वाले निष्ठुर माली उसकी सत्प्रवृत्तिलता की कोंपल को कुतर फेंकते हैं।

सत्कार्य ही क्यों न हो, जब कोई व्यक्ति उसे औचित्यानौचित्य का विचार किये बिना करने लगता है तब वह धुन या व्यसन का रूप ले लेता है। साहित्य, पढ़ने लिखने और संगीत आदि कलाओं की धुन, सेवा और परोपकार का शौक, जब व्यसन का रूप धारण कर लेते हैं तभी उनके कारण परिवार में संघर्ष उत्पन्न होता है। स्त्री मुश्किल से किसी धुन को पाल सकती है। अंकुर फूटते फूटते ही उसे नष्ट कर दिया जाता है। मीरा के समान जिसके हृदय में गहरा अंकुर जम जाता है उसे तोड़ने की शक्ति तो किसी में भी नहीं रहती किन्तु मीरा तो कभी कभी ही आविर्भूत हो सकती है। उदाहरणार्थ कितनी ही स्त्रियों को देखा गया है कि विवाह होने से पहले उनकी लेखनी में तेज और मोहकता रहती थी, उनसे बड़ी बड़ी आशाएँ की जाती थीं, पर विवाह होते ही पक्षी के समान चहचहाहट दिखाकर वे मध्यान्ह में ही घोंसले में दुबक गई। आशा है साँझ को निकलने की, किन्तु अभी उस पर विश्वास क्या?

पराधीनता महान पाप है। इसमें स्वातन्त्र्य सुख के साथ संयम-सुख का भी