नारी के बन्धन
आजकल प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में नारी-जागरण सम्बन्धी लेख किसी न किसी रूप में निकलते रहते हैं। उनमें स्त्रीस्वातन्त्र्य की आवाज़ भी कुछ दबी हुई सी क्षीण स्वर में डरते डरते और कभी उग्रता के साथ प्रतिक्रियात्मक रूप में उठायी जाती है। किन्तु स्त्रियों के लिये स्वतन्त्रता आज भी डरावनी सी दिखाई देती है। कोई कहता है, स्वतन्त्रता पाकर स्त्रियाँ उच्छृँखल हो जायेंगी। कोई कहता है पति-पत्नी में प्रेम न रहेगा और गृहस्थी में अशांति रहेगी। ठीक भी है मालिकों की दृष्टि से। किन्तु सच्चाई से निष्पक्ष भाव से और मित्रता की दृष्टि से विचार करने पर ये विचार हलके ही ऊँचते हैं।
आवश्यक बन्धन काई बुरी वस्तु नहीं है। बल्कि यों कहा जाय तो अधिक अच्छा होगा कि इन बन्धनों के बिना काई समाज जीवित नहीं रह सकता। संसार में आते ही प्राणी को बन्धन घेरने लगते हैं। तारिकाओं, चाँद और सूरज तक का बन्धनों में ही घूमना पड़ता है। पशु, पक्षी, स्त्री, पुरुष और बालक की तो बात ही क्या है! संसार की गूढ़ता से अजान बच्चों को भी हम 'डिसिप्लिन' सिखाते हैं, उन पर हलकासा नियन्त्रण रखते हैं। तब माया और अज्ञान की अँधेरी नगरी में भटकने वाले स्त्री पुरुषों का योग्य मार्ग दिखाना और उसी पर चलने के लिये प्रतिबन्ध लगा देना भी मानव-हित की दृष्टि से अच्छा ही है। किन्तु मानवता के विकास को रोककर उसे कुण्ठित बनाने वाले बन्धन सदोष और अहितकर होते हैं। बन्धन पाप है यदि वह व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये, आत्मतुष्टि के लिये किसी पर लगाया जाय। सुन्दरता इसमें है कि लगे हुए बन्धन, बंधन न मालूम पड़ें। वे एक आवश्यकता बन जायँ और पालन करनेवाला उन्हें प्रसन्नता से ग्रहण कर सके।
आज का पुरुष दिन-दिन भर स्त्री-बच्चों का ख्याल न करके अपनी धुन में लगा