ही महान् पापों का परिणाम है, जो स्वयँ अपने को घृणा की दृष्टि से देखती हैं और अपने को सब दोषों की खान समझती हैं, उन्हीं को बुरा बतलाना क्या मरे हुए पर लात जमाना नहीं है? आज संसार की सर्वाधिक अवनत प्राणी नारी अपने को इतनी दीन, इतनी पतित क्यों समझती है? इसका कारण क्या पुरुष नहीं है? कहा जा सकता है कि इसका कारण पुरुष नहीं, अविद्या है। पढ़ी-लिखी स्त्री अपने को ऐसा नहीं समझती। मैं मानती हूँ कि अपढ़ स्त्रियाँ अपने को ज्ञानी न समझें, मूर्ख समझें किन्तु वे अपने को पतित और पाप का मूल क्यों समझें? इसका कारण क्या बार-बार पुरुषों द्वारा उन्हें वैसा बतलाया जाना नहीं है? अपने विषय में मनुष्य हमेशा जैसा सुनता रहता है वैसा ही धीरे-धीरे अपने को समझने लगता है और कुछ अंशों तक वैसा हो भी जाता है। आज स्त्रियों की भी कुछ ऐसी ही मानसिक दशा है। वे निर्दोष हाने पर भी कहती हैं, 'पुरुष देवता है, पुरुष में कभी काई दोष नहीं होता; चाहे वह कैसा ही हो। हम ही बुरी हैं। ईश्वर स्त्री का जन्म कभी न-दे।' ऐसी उनकी कुछ धार्मिक भावना सी बन गई है। वे सारा दोष स्वयं अपने सिर पर लेती हैं। मैं ऐसी पवित्रहृदया नारी को दोषी बतलाऊँ कि समाज और धर्म के ठेकेदार, जवाबदार पुरुषों का। खैर, दोषी काई भी हो दोष अवश्य है। प्रसन्नता की बात है कि अब समाज की इस दशा का कट्टरपंथी धार्मिक भी सन्तोषजनक नहीं समझते, यही क्या कम है?
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दोषी कौन?