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दोषी कौन ?
 

एकछत्र राज्य न रहने का डर है ? वास्तविक अर्थ में जो सुधारक सज्जन समाज के सामने आये हैं उनके घरों में उच्छृंखलता, शील की कमी तथा विलासिता आज उतनी नहीं है जितनी उनके पहले के कुरीति-पूर्ण जीवन में थी । उसकी जगह उनमें सभ्यता, सादगी, उदारता, त्याग, विनयशीलता आदि का आधिक्य है । शील नष्ट करनेवाली,विलासी और उच्छृंखल बनाने वाली शिक्षा न स्त्रियों को ही लेना चाहिये और न पुरुषों का ही। किन्तु शिक्षा पाकर यदि काई बालक उच्छृंखल निकले तो इसके लिये शिक्षा को क्यों दोषी ठहराया जाय ?

आज भी कुछ लोग समझते हैं कि नारी ताड़न की अधिकारी है । वह ताड़न से ही ठीक रहती है, जिस प्रकार गुलाम । ये लोग नारी-आन्दोलन से बड़े शंकित हो रहे हैं और कभी कभी झल्ला भी पड़ते हैं । सोचना चाहिये कि जब किसी बात की अति हो । जाती है तब उसमें क्रांति अवश्य होती है। समाज में देखा गया है कि जब तक ज्ञान,कर्म और उपासना में समन्वय रहता है तब तक सुख शान्ति और आनन्द रहता है किन्तु जब इनमें से एक ज़ोर पकड़ता है; जैसे कर्म का दबाकर ज्ञान सर्वश्रेष्ठ समझा जाने लगता है; हाट, बाज़ार, चौराहे पर जहाँ देखा वहीं लोग साधिकार और अनधिकार ज्ञान, माया जीव, ब्रह्म, द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा करना ही अपना परम कर्तव्य समझने लगते हैं और कर्म का पीछे डाल देते हैं; तब समाज-व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। परिस्थिति स्वयँ किसी महात्मा, नेता या मार्ग:प्रदर्शक का पैदा कर लेती है और वह ज्ञान की अपेक्षा कर्म का श्रेष्ठ बताकर जनता की रुचि उधर फिराता,। वास्तव में स्त्री और पुरुष के अधिकारों के समान ही ज्ञान और कर्म में भी समानता चाहिये; किन्तु जिस चीज़ की कमी होती है उसे सामने लाने के लिये उसकी विशेषता बतलानी होती है । जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान की महत्ता पर आघात न करते हुए भी कर्म की ही प्रधानता बतलाई । इसी प्रकार उपासना का समझिये । सूरदास के उद्धव ने ज्ञान बघारने में कमी नहीं की किन्तु गोपियों के आगे उनकी एक न चली । वह समय ही ऐसा था । जब लोगों के निराश व हतोत्साह होने का डर होता है तब ज्ञान और कर्म उतने सफल नहीं होते जितनी भक्ति व उपासना । इसी तरह सामाजिक व्यवस्था और देश की उन्नति के लिये आज स्त्री के अधिकारों को ऊँचे स्वर के साथ घोषित करना ज़रूरी है । उन्नतिशील स्वतन्त्र देशों में तो स्त्रियों का सम्मान पुरुषों से भी अधिक है किन्तु हम तो अधिक के लिये नहीं कहतीं । हम तो केवल अपनी लज्जाजनक हालत को हटाना चाहती