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स्त्रियों पर दोषारोपण

नारी समाज आज जिस स्थिति में है वह पहिले से भी बुरी है। जब तक किसी व्यक्ति को अपनी हीनावस्था का अनुभव नहीं होता तब तक वह उससे उत्पन्न होने वाले क्लेश से भी मुक्त रहता है किन्तु जब उसे अपनी स्थिति का कुछ-कुछ आभास मिलने लगता है तो उसके हृदय में एक टीस भी उत्पन्न होती है और वह टीस और भी बढ़ जाती है जब उसके मार्ग में उन्नति की साधना करते समय कुछ ऐसे रोड़े आकर उपस्थित हो जाते हैं जिन्हें वह मार्ग का शूल समझता है। भारत में नारी-जागरण को लेकर जो प्रयत्न किये गये उनमें पत्रों और प्लेटफार्मों के द्वारा पुरुषों का बहुत कुछ सहयोग प्राप्त हुआ, किन्तु व्यावहारिक रूप में उस सहयोग का समर्थन बहुत कम हो सका। कुछ वर्ष हुए तब मैंने परदा-प्रथा के सम्बन्ध में कुछ कहने का साहस किया था। उस समय कुछ समाज-सुधारक माने जाने वाले सज्जनों ने मेरा विरोध करते समय यह तर्क दिया था कि उन्होंने दर्जनों पुरुषों से बात की किन्तु सभी परदा-त्याग को बुरा समझने वाले मिले। इसका अर्थ प्रकारान्तर से यह हुआ कि समाज के नियमों की भलाई-बुराई का निर्णय पूर्णतया पुरुषों की इच्छा पर निर्भर है। यदि वे पुरुषों के स्थान पर स्त्रियों की सम्मति लेते तो उन्हें इससे विरुद्ध मत प्राप्त होता। स्त्रियाँ परदे की पक्षपातिनी हों, यह सम्भव नहीं। यदि उन्हें परदा प्रिय होता तो वे स्वयं को उससे रातदिन आवृत रखना चाहतीं; किन्तु बात उलटी है। पुरुष के घर में प्रवेश करते ही वे घूँघट काढ़कर भीगी बिल्ली की तरह दुम दबाकर बैठ जाती हैं और उसके बाहर जाते ही संतोष की साँस लेकर घूँघट खोलकर पूर्ववत् चहकने लगती हैं। बन्धन-वश भी वे स्वजनों को, और अधिक हुआ तो परिचित वयोवृद्धों को छोड़कर और किसी से बूंघट नहीं काढ़तीं। अन्य प्रान्तों के पुरुषों, नौकर-चाकरों, फेरीवालों और चूड़ीवालों आदि से तो घूँघट किया ही नहीं जाता। इससे प्रगट